यं मर्त्यः पुरुस्पृहं विदद्विश्वस्य धायसे। प्र स्वादनं पितूनामस्ततातिं चिदायवे ॥६॥
ऋग्वेद में स्वराडुष्निक् के 11 संदर्भ मिले
यं मर्त्यः पुरुस्पृहं विदद्विश्वस्य धायसे। प्र स्वादनं पितूनामस्ततातिं चिदायवे ॥६॥
स हि ष्मा धन्वाक्षितं दाता न दात्या पशुः। हिरिश्मश्रुः शुचिदन्नृभुरनिभृष्टतविषिः ॥७॥
त्वामग्ने हविष्मन्तो देवं मर्तास ईळते। मन्ये त्वा जातवेदसं स हव्या वक्ष्यानुषक् ॥१॥
त्वां विश्वे सजोषसो देवासो दूतमक्रत। सपर्यन्तस्त्वा कवे यज्ञेषु देवमीळते ॥३॥
न्य१ग्निं जातवेदसं दधाता देवमृत्विजम्। प्र यज्ञ एत्वानुषगद्या देवव्यचस्तमः ॥२॥
चिकित्विन्मनसं त्वा देवं मर्तास ऊतये। वरेण्यस्य तेऽवस इयानासो अमन्महि ॥३॥
त्वामिद्वृत्रहन्तम जनासो वृक्तबर्हिषः। उग्रं पूर्वीषु पूर्व्यं हवन्ते वाजसातये ॥६॥
अस्माकमिन्द्र दुष्टरं पुरोयावानमाजिषु। सयावानं धनेधने वाजयन्तमवा रथम् ॥७॥
अस्माकमिन्द्रेहि नो रथमवा पुरंध्या। वयं शविष्ठ वार्यं दिवि श्रवो दधीमहि दिवि स्तोमं मनामहे ॥८॥
आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब। वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥१॥
वयं मित्रस्यावसि स्याम सप्रथस्तमे। अनेहसस्त्वोतयः सत्रा वरुणशेषसः ॥५॥
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