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न्य१॒॑ग्निं जा॒तवे॑दसं॒ दधा॑ता दे॒वमृ॒त्विज॑म्। प्र य॒ज्ञ ए॑त्वानु॒षग॒द्या दे॒वव्य॑चस्तमः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ny agniṁ jātavedasaṁ dadhātā devam ṛtvijam | pra yajña etv ānuṣag adyā devavyacastamaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। अ॒ग्निम्। जा॒तऽवे॑दसम्। दधा॑त। दे॒वम्। ऋ॒त्विज॑म्। प्र। य॒ज्ञः। ए॒तु॒। आ॒नु॒षक्। अ॒द्य। दे॒वव्य॑चःऽतमः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:22» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो (देवव्यचस्तमः) पृथिव्यादिकों का धारण करने और अति तोड़नेवाला (यज्ञः) मिलने योग्य (आनुषक्) अनुकूलता से (अद्या) आज हम लोगों को (एतु) प्राप्त हो उस (ऋत्विजम्) ऋतुओं में यज्ञ करनेवाले के सदृश (जातवेदसम्) उत्पन्न हुओं में विद्यमान (देवम्) श्रेष्ठ गुण, कर्म्म और स्वभाववाले (अग्निम्) अग्नि को (प्र, नि, दधाता) उत्तमता से निरन्तर धारण करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ करनेवाले यज्ञ को पूर्ण करते हैं, वैसे ही अग्नि शिल्पविद्या के कृत्य की सिद्धि को पूर्ण करता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यो देवव्यचस्तमो यज्ञ आनुषगद्यास्मानेतु तमृत्विजमिव जातवेदसं देवमग्निं प्र णि दधाता ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) (अग्निम्) पावकम् (जातवेदसम्) जातेषु विद्यमानम् (दधाता) धरत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देवम्) दिव्यगुणकर्मस्वभावम् (ऋत्विजम्) य ऋतुषु यजति तद्वद्वर्त्तमानम् (प्र) (यज्ञः) सङ्गन्तव्यः (एतु) प्राप्नोतु (आनुषक्) आनुकूल्येन (अद्या) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देवव्यचस्तमः) यो देवान् पृथिव्यादीन् धरति भिनत्ति च सोऽतिशयितः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथर्त्विजो यज्ञं पूर्णं कुर्वन्ति तथैवाग्निः शिल्पविद्याकृत्यसिद्धिमलङ्करोति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे याज्ञिक यज्ञ करणाऱ्या यजमानाचा यज्ञ पूर्ण करतात. तसाच अग्नी शिल्पविद्येच्या कृत्याची सिद्धी पूर्ण करतो. ॥ २ ॥