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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॒ नियु॑नज्मि। अ॒द्भ्यस्त्वौष॑धी॒भ्योऽनु॑ त्वा मा॒ता म॑न्यता॒मनु॑ पि॒तानु॒ भ्राता॒ सग॒र्भ्योऽनु॒ सखा॒ सयू॑थ्यः। अ॒ग्नीषोमा॑भ्यां त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि ॥९॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑ त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। नि। यु॒न॒ज्मि॒। अ॒द्भ्य इत्य॒द्ऽभ्यः। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। अनु॑। त्वा॒। मा॒ता। म॒न्य॒ता॒म्। अनु॑। पि॒ता। अनु॑। भ्राता॑। सगर्भ्य॒ इति॑ सऽगर्भ्यः। अनु॑। सखा॑। सयू॑थ्य इति॑ सऽयू॑थ्यः। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥९॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:9


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह गुरु शिष्य को क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! मैं (सवितुः) समस्त ऐश्वर्ययुक्त (देवस्य) वेदविद्या प्रकाश करनेवाले परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस जगत् में (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) गुणों से वा (पूष्णः) पृथिवी के (हस्ताभ्याम्) हाथों के समान धारण और आकर्षण गुणों से (त्वा) तुझे (आददे) स्वीकार करता हूँ तथा (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम के तेज और शान्ति गुणों से (जुष्टम्) प्रीति करते हुए (त्वा) तुझ को जो ब्रह्मचर्य्य धर्म के अनुकूल जल और ओषधि हैं, उन (अद्भ्यः) जल और (ओषधीभ्यः) गोधूम आदि अन्नादि पदार्थों से (नियुनज्मि) नियुक्त करता हूँ, तुझे मेरे समीप रहने के लिये तेरी (माता) जननी (अनु) (मन्यताम्) अनुमोदित करे (पिता) पिता (अनु) अनुमोदित करे (सगर्भ्यः) सहोदर (भ्राता) भाई (अनु) अनुमोदित करे (सखा) मित्र (अनु) अनुमोदित करे और (सयूथ्यः) तेरे सहवासी (अनु) अनुमोदित करें (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम के तेज और शान्ति गुणों में (जुष्टम्) प्रीति करते हुए (त्वा) तुझ को (प्र उक्षामि) उन्हीं गुणों से ब्रह्मचर्य्य के नियम पालने के लिये अभिषिक्त करता हूँ ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में माता-पिता, बन्धुवर्ग और मित्रवर्गों को चाहिये कि अपने सन्तान आदि को अच्छी शिक्षा देकर ब्रह्मचर्य करावें, जिससे वे गुणवान् हों ॥९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स शिष्यं किमुपदिशेदित्याह ॥

अन्वय:

(देवस्य) वेदविद्याप्रकाशकस्य (त्वा) त्वां विद्यार्थिनम् (सवितुः) सकलैश्वर्यवतः (प्रसवे) प्रसूयते विश्वस्मिन् यस्तस्मिन् (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोः (बाहुभ्याम्) तत्तद्गुणाभ्याम् (पूष्णः) पृथिव्याः। पूषेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (हस्ताभ्याम् ) हस्त इव वर्त्तमानाभ्यां धारणाकर्षणाभ्याम् (अग्नीषोमाभ्याम्) एतयोस्तेजःशान्तिगुणाभ्याम् (जुष्टम्) प्रीतम् (नि) (युनज्मि) (अद्भ्यः) यथा जलेभ्यः (ओषधीभ्यः) रोगनिवारिकाभ्यः (अनु) (त्वा) त्वाम् (माता) जननी (मन्यताम्) (अनु) (पिता) जनकः (अनु) (भ्राता) बन्धुः (सगर्भ्यः) सोदरः (अनु) (सखा) सुहृत् (सयूथ्यः) ससैन्यः (अग्नीषोमाभ्याम्) पूर्वोक्ताभ्याम् (त्वा) (जुष्टम्) प्रीतम् (प्र उक्षामि) सिञ्चामि ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.४.३-५) व्याख्यातः ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिष्य ! अहं सवितुर्देवस्य प्रसवे अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वा त्वामाददे। अग्नीषोमाभ्यां जुष्टं त्वा त्वां ये ब्रह्मचर्य्यधर्मानुकूला आप ओषधयश्च सन्ति, ताभ्योऽद्भ्य ओषधीभ्यो नियुनज्मि। त्वां मत्सीपे स्थातुं माता जननी अनुमन्यताम्, पितानुमन्यताम्, सगर्भ्यो भ्रातानुमन्यताम्, सखानुमन्यताम्, सयूथ्योनुमन्यताम्, अग्नीषोमाभ्यां जुष्टं प्रीतियुक्तं त्वामहं प्रोक्षामि तद्गुणैरभिषिञ्चामि ॥९॥
भावार्थभाषाः - अस्मिन् संसारे मात्रादिभिः पित्रादिभिर्बन्धुवर्गैर्मित्रवर्गैश्च स्वापत्यादीनि सुशिक्ष्य तैर्ब्रह्मचर्य्यं कारयितव्यम्, यतस्ते सद्गुणिनः स्युरिति ॥९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात माता, पिता, बंधू व मित्रवर्ग यांनी आपल्या संतानांना चांगले शिक्षण देऊन ब्रह्मचर्य पालन करण्यास उद्युक्त करावे. त्यामुळे ते गुणवान बनतील.