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तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दꣳ सदा॑ पश्यन्ति सूरयः॑। दि॒वी᳖व॒ चक्षु॒रात॑तम् ॥५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒वी᳕वेति॑ दिविऽइ॑व। चक्षुः॑। आत॑त॒मित्यात॑तम् ॥५॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त मन्त्र के विषय में जो अनुष्ठान कहा है, उससे क्या सिद्ध होता है, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभ्यजनो ! जिस पूर्वोक्त कर्म से (सूरयः) स्तुति करनेवाले वेदवेत्ता जन (विष्णोः) संसार की उत्पत्ति पालन और संहार करनेवाले परमेश्वर के जिस (परमम्) अत्यन्त उत्तम (पदम्) प्राप्त होने योग्य पद को (दिवि) सूर्य के प्रकाश में (आततम्) व्याप्त (चक्षुः) नेत्र के (इव) समान (सदा) सब समय में (पश्यन्ति) देखते हैं (तत्) उस को तुम लोग भी निरन्तर देखो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र में (पश्यत) इस पद का अनुवर्त्तन किया जाता है और पूर्णोपमालङ्कार है। निर्धूत अर्थात् छूट गये हैं पाप जिन के वे विद्वान् लोग अपनी विद्या के प्रकाश से जैसे ईश्वर के गुणों को देख के सत्य धर्माचरणयुक्त होते हैं, वैसे हम लोगों को भी होना चाहिये ॥५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

तदनुष्ठानेन किं फलमित्याह

अन्वय:

(तत्) (विष्णोः) पूर्वमन्त्रप्रतिपादितस्य जगदुत्पत्तिस्थितिसंहृतिविधातुः परमेश्वरस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) प्राप्तुमर्हम् (सदा) सर्वस्मिन् काले (पश्यन्ति) अवलोकन्ते (सूरयः) वेदविदः स्तोतारः। सूरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) (दिवीव) आदित्यप्रकाश इव (चक्षुः) चष्टेऽनेन तत् (आततम्) व्याप्तिमत् ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.१.८) व्याख्यातः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - भो सभ्यजना ! येन पूर्वोक्तेन कर्मणा सूरयः स्तोतारः विष्णोर्यत् परमं पदं दिवि आततं चक्षुरिव सदा पश्यन्ति, तेनैव तद् यूयमपि सततं पश्यत ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र मन्त्रे पूर्वमन्त्रान् (पश्यत) इत्यस्य पदस्यानुवृत्तिः क्रियते। पूर्णोपमालङ्कारश्चास्ति। निर्धूतमला विद्वांसः स्वविद्याप्रकाशेन यथेश्वरगुणान् दृष्ट्वा विशुद्धचरणशीला जायन्ते, तथाऽस्मिाभिरपि भवितव्यम् ॥५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील (पश्यत) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे व पूर्णोपमालंकार आहे. पापरहित विद्वान लोक आपल्या ज्ञानयुक्त प्रकाशाने जसे ईश्वराचे गुण जाणून सत्यधर्माचे आचरण करतात तसे सर्व लोकांनी करावे.