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शन्नो॑ मि॒त्रः शं वरु॑णः॒ शन्नो॑ भवत्वर्य॒मा। शन्न॒ऽ इन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒ शन्नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः ॥९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शम्। नः॒। मि॒त्रः। शम्। वरु॑णः। शम्। नः॒। भ॒व॒तु॒। अ॒र्य्य॒मा ॥ शम्। नः॒। इन्द्रः॑। बृह॒स्पतिः॑। शम्। नः॒। विष्णुः॑। उ॒रु॒क्र॒म इत्यु॑रुऽक्र॒मः ॥९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:36» मन्त्र:9


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को अपने और दूसरों के लिये सुख की चाहना करनी चाहिये इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (नः) हमारे लिये (मित्रः) प्राण के तुल्य प्रिय मित्र (शम्) सुखकारी (भवतु) हो (वरुणः) जल के तुल्य शान्ति देनेवाला जन (शम्) सुखकारी हो (अर्य्यमा) पदार्थों के स्वामी वा वैश्यों को माननेवाला न्यायाधीश (नः) हमारे लिये (शम्) सुखकारी हो (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् (बृहस्पतिः) महती वेदरूप वाणी का रक्षक विद्वान् (नः) हमारे लिये (शम्) कल्याणकारी हो और (उरुक्रमः) संसार की रचना में बहुत शीघ्रता करनेवाला (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) कल्याणकारी होवे, वैसे हम लोगों के लिये भी होवे ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे अपने लिये सुख चाहें, वैसे दूसरों के लिये भी और जैसे आप सत्सङ्ग करना चाहें, वैसे इसमें अन्य लोगों को भी प्रेरणा किया करें ॥९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः स्वार्थपरार्थसुखमिषितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(शम्) सुखकारि (नः) अस्मभ्यम् (मित्रः) प्राण इव प्रियः सखा (शम्) (वरुणः) जलमिव शान्तिप्रदः (शम्) (नः) अस्मभ्यम् (भवतु) (अर्य्यमा) योऽर्यान् मन्यते स न्यायाधीशः (शम्) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (बृहस्पतिः) बृहत्या वाचः पालको विद्वान् (शम्) (नः) अस्मभ्यम् (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (उरुक्रमः) उरु बहुक्रमः संसाररचने यस्य सः ॥९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा नो मित्रः शं भवतु वरुणः शम्भवत्वर्य्यमा नः शं भवतु इन्द्रो बृहस्पतिर्नः शम्भवतु उरुक्रमो विष्णुर्नः शम्भवतु तथा युष्मभ्यमपि भवेत् ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा स्वार्थं सुखमेष्टव्यं तथा परार्थमपि तथा च ते स्वयं सत्सङ्गमिच्छेयुस्तथा तत्रान्यानपि प्रेरयेयुः ॥९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे स्वतःसाठी जशी सुखाची इच्छा करतात तशी दुसऱ्यांसाठीही करावी. जशी स्वतःला सत्संगाची इच्छा असते तशी प्रेरणा इतर लोकांनाही द्यावी.