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अधि॑ नऽ इन्द्रैषां॒ विष्णो॑ सजा॒त्या᳖नाम्। इ॒ता मरु॑तो॒ऽ अश्वि॑ना। तं प्र॒त्नथा॑। अ॒यं वे॒नः। ये दे॒वासः॑। आ न॒ऽइडा॑भिः। विश्वे॑भिः सो॒म्यं मधु॑। ओमा॑सश्चर्षणीधृतः ॥४७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अधि। नः॒। इ॒न्द्र॒। ए॒षा॒म्। विष्णो॒ऽइति॒ विष्णो॑। स॒जा॒त्या᳖ना॒मिति॑ सऽजा॒त्या᳖नाम्। इ॒त। मरु॑तः। अश्वि॑ना ॥४७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यदातः विद्वन् ! हे (विष्णो) व्यापक ईश्वर ! हे (मरुतः) मनुष्यो ! तथा हे (अश्विना) अध्यापक, उपदेशक लोगो ! तुम सब (सजात्यानाम्) हमारे सहयोगी (एषाम्) इन (नः) हमारे बीच (अधि) स्वामीपन को (इत) प्राप्त होओ ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् ईश्वर के समान पक्षपात छोड़ समदृष्टि से हमारे विषय में वर्त्तें, उनके विषय में हम भी वैसे ही वर्त्ता करें ॥४७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(अधि) उपरिभावे (नः) अस्माकम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद विद्वन् ! (एषाम्) वर्त्तमानानाम् (विष्णो) व्यापक परमात्मन् ! (सजात्यानाम्) अस्मद्विधानाम् (इत्) प्राप्नुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ०६.३.१३५] इति दीर्घः। (मरुतः) मनुष्याः (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ ॥४७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! हे विष्णो ! हे मरुतः ! हे अश्विना ! यूयं सजात्यानामेषां नो मध्येऽधिस्वामित्वमित ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांस ईश्वरवदस्मासु वर्तेरंस्तेषु वयं तथैव वर्तेमहि ॥४७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान भेदभाव न करता ईश्वराप्रमाणे सर्वांशी समदृष्टीने वागतात, तसेच आपण सर्वांनीही त्याच्याशी तसे वागावे.