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ऊ॒र्ध्वमे॑न॒मुच्छ्र॑यताद् गि॒रौ भा॒रꣳ हर॑न्निव। अथा॑स्य॒ मध्य॑मेजतु शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व ॥२७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्ध्वम्। ए॒न॒म्। उत्। श्र॒य॒ता॒त्। गि॒रौ। भा॒रम्। हर॑न्नि॒वेति॒ हर॑न्ऽइव। अथ॑। अ॒स्य॒। मध्य॑म्। ए॒ज॒तु॒। शी॒ते। वात॑ पु॒नन्नि॒वेति॑ पु॒नन्ऽइ॑व ॥२७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजास्थ विद्वान् ! आप (गिरौ) पर्वत पर (भारम्) भार को (हरन्निव) पहुँचाने के समान (एनम्) इस राजा को (ऊर्ध्वम्) सब व्यवहारों में अग्रगन्ता (उच्छ्रयतात्) उन्नतियुक्त करें, (अथ) इस के अनन्तर जैसे (अस्य) इस राज्य के (मध्यम्) मध्यभाग लक्ष्मी को पाकर (शीते) शीतल (वाते) पवन में (पुनन्निव) शुद्ध होते हुए अन्न आदि के समान (एजतु) उत्तम कर्मों में चेष्टा किया कीजिये ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य मेघमण्डल में जल के भार को पहुँचा और वहाँ से बरसा के सब को उन्नति देता है, वैसे ही प्रजाजन राजपुरुषों को उन्नति दें और अधर्म के आचरण से डरें ॥२७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(ऊर्ध्वम्) अग्रगामिनम् (एनम्) राजानम् (उच्छ्रयतात्) उच्छ्रितं कुर्यात् (गिरौ) पर्वते (भारम्) (हरन्निव) (अथ) (अस्य) राष्ट्रस्य (मध्यम्) (एजतु) सत्कर्मसु चेष्टताम् (शीते) (वाते) (पुनन्निव) ॥२७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजास्थ विद्वन् ! भवान् गिरौ भारं हरन्निवैनं राजानमूर्ध्वमुच्छ्रयतात्। अथास्य मध्यं प्राप्य शीते वाते पुनन्निवैजतु ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ। यथा सूर्यो मेघमण्डले जलभारं नीत्वा वर्षयित्वा सर्वानुन्नयति, तथैव प्रजा राजपुरुषानुन्नयेदधर्माचरणाद् बिभीयाच्च ॥२७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे सूर्य मेघांना जलभार देतो व तेथून वृष्टीरूपाने बरसात करतो. त्यामुळे सर्वांची भरभराट होते. तसे प्रजेने राजपुरुषांना समृद्ध करावे व अधर्माचरणास घाबरावे.