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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (ये) जो (अन्नेषु) खाने योग्य पदार्थों में वर्त्तमान (पात्रेषु) पात्रों में (पिबतः) पीते हुए (जनान्) मनुष्यादि प्राणियों को (विविध्यन्ति) बाण के तुल्य घायल करते हैं (तेषाम्) उन को हटाने के लिये (सहस्रयोजने) असंख्य योजन देश में (धन्वानि) धनुषों को (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं ॥६२ ॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष अन्न को खाते और जलादि को पीते हुए जीवों को विष आदि से मार डालते हैं, उनसे सब लोग दूर बसें ॥६२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तदेवाह ॥
अन्वय:
(ये) (अन्नेषु) अत्तव्येषु पदार्थेषु (विविध्यन्ति) बाणा इव सक्षतान् कुर्वन्ति (पात्रेषु) पानसाधनेषु (पिबतः) पानं कुर्वतः (जनान्) मनुष्यादिप्राणिनः। तेषामिति पूर्ववत् ॥६२ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - वयं येऽन्नेषु वर्त्तमानान् पात्रेषु पिबतो जनान् विविध्यन्ति, तेषां प्रतिकाराय सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥६२ ॥
भावार्थभाषाः - येऽन्नाहारं जलादिपानं कुर्वतो विषादिना घ्नन्ति, तेभ्यः सर्वैर्दूरे वसनीयम् ॥६२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अन्न खातात, पाणी पितात, स्वतः जगतात व इतर जीवांना मात्र मारून टाकतात त्यांच्यापासून सर्वांनी दूर राहावे.