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ऊ॒र्ध्वामारो॑ह प॒ङ्क्तिस्त्वा॑वतु शाक्वररैव॒ते साम॑नी त्रिणवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ स्तोमौ॑ हेमन्तशिशि॒रावृ॒तू वर्चो॒ द्रवि॑णं॒ प्रत्य॑स्तं॒ नमु॑चेः॒ शिरः॑ ॥१४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्ध्वाम्। आ। रो॒ह॒। प॒ङ्क्तिः। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। शा॒क्व॒र॒रै॒वतेऽइति॑ शाक्वररै॒वते। साम॑नी॒ऽइति॑ सामनी। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रिꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑ त्रिनवऽत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। स्तोमौ॑। हे॒म॒न्त॒शि॒शि॒रौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। वर्चः॑। द्रवि॑णम्। प्रत्य॑स्त॒मिति॒ प्रति॑ऽअस्तम्। नमु॑चेः। शिरः॑ ॥१४॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि प्रबल विद्या से अनेक पदार्थों को जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप जो (ऊर्ध्वाम्) ऊपर की दिशा में (आरोह) प्रसिद्ध होवें तो (त्वा) आपको (पङ्क्तिः) पङ्क्ति नाम का पढ़ा हुआ छन्द (शाक्वररैवते) शक्वरी और रेवती छन्द से युक्त (सामनी) सामवेद के पूर्व उत्तर दो अवयव (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) तीन काल, नव अङ्कों की विद्या और तैंतीस वसु आदि पदार्थ जिन दोनों से व्याख्यान किये गये हैं, उनके पूर्ण करनेवाले (स्तोमौ) स्तोत्रों के दो भेद (हेमन्तशिशिरौ) हेमन्त और शिशिर (ऋतू) ऋतु (वर्चः) ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या का पढ़ना और (द्रविणम्) ऐश्वर्य्य (अवतु) तृप्त करे और (नमुचेः) दुष्ट चोर का (शिरः) मस्तक (प्रत्यस्तम्) नष्ट-भ्रष्ट होवे ॥१४॥
भावार्थभाषाः - जो सब ऋतुओं में समय के अनुसार आहार-विहार युक्त होके विद्या योगाभ्यास और सत्सङ्गों का अच्छे प्रकार सेवन करते हैं, वे सब ऋतुओं में सुख भोगते हैं और इनको कोई चोर आदि भी पीड़ा नहीं दे सकता ॥१४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरुत्कृष्टविद्ययाऽनेके पदार्था विज्ञातव्या इत्याह ॥

अन्वय:

(ऊर्ध्वाम्) दिशम् (आ) (रोह) (पङ्क्तिः) (त्वा) (अवतु) (शाक्वररैवते) शाक्वरं च रैवतं च ते (सामनी) (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) ये त्रयश्च काला नवाङ्कविद्याश्च त्रयश्च त्रिंशच्च वस्वादयः पदार्था व्याख्याता याभ्यां तयोः पूरणौ तौ (स्तोमौ) स्तुतिविशेषौ (हेमन्तशिशिरौ) (ऋतू) (वर्चः) विद्याध्ययनम् (द्रविणम्) द्रव्यम् (प्रत्यस्तम्) प्रतिक्षिप्तम् (नमुचेः) न मुञ्चति परपदार्थान् दुष्टाचारान् वा यः स्तेनस्तस्य (शिरः) उत्तमाङ्गम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.१.७) व्याख्यातः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! यद्यूर्ध्वा दिशमारोह तर्हि त्वा पङ्क्तिः शाक्वररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू वर्चो द्रविणं चावतु, नमुचेः शिरश्च प्रत्यस्तं स्यात् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अन्वृतु योग्याऽऽहारविहारस्सन्तो विद्यायोगाभ्याससत्सङ्गान् चरन्ति, ते सर्वेष्वृतुषु सुखं भुञ्जते, न चैभ्यो कश्चिच्चौरः पीडां दातुं शक्नोति ॥१४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सर्व ऋतूंमध्ये योग्य आहारविहार करतात, विद्या, योगाभ्यास व सत्संग करतात त्यांना सर्व ऋतूंमध्ये सुख प्राप्त होते. त्यांना कोणीही त्रास देऊ शकत नाही.