अब कर्मयोगी के लिये आह्वान कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - हे कर्मयोगिन् ! (वाजेभिः) अपने बलों के सहित (अस्मान्, अभि) हमारे अभिमुख (सु) शोभन रीति से (प्र, उ) अवश्य (आयाहि) आवें (महान्, युवजानिः, इव) जैसे दीर्घावस्थापन्न पुरुष युवती स्त्री को उद्वाहित करके लज्जित होता है, इस प्रकार (मा, हृणीथाः) लज्जित मत हो ॥१९॥
भावार्थभाषाः - राजलक्ष्मी, जो सदा युवति है, उसका पति वयोवृद्ध=हतपुरुषार्थ तथा जीर्णावयवोंवाला पुरुष कदापि नहीं हो सकता, या यों कहो कि जिस प्रकार युवति स्त्री का पति वृद्ध हो, तो वह पुरुष सभा, समाज तथा सदाचार के नियमों से लज्जित होकर अपना शिर ऊँचा नहीं कर सकता, इसी प्रकार जो पुरुष हतोत्साह तथा शूरतादि गुणों से रहित है, वह राज्यश्रीरूप युवति का पति बनने योग्य नहीं होता। इस मन्त्र में वृद्धविवाह तथा हतोत्साह पुरुष के लिये राजलक्ष्मी की प्राप्ति दुर्घट कथन की है अर्थात् युवति स्त्री के दृष्टान्त से इस बात को बोधन किया है कि शूरवीर बनने के लिये सदा युवावस्थापन्न शौर्य्यादि भावों की आवश्यकता है ॥१९॥