शं नो॒ भगः॒ शमु॑ नः॒ शंसो॑ अस्तु॒ शं नः॒ पुरं॑धिः॒ शमु॑ सन्तु॒ रायः॑। शं नः॑ स॒त्यस्य॑ सु॒यम॑स्य॒ शंसः॒ शं नो॑ अर्य॒मा पु॑रुजा॒तो अ॑स्तु ॥२॥
śaṁ no bhagaḥ śam u naḥ śaṁso astu śaṁ naḥ puraṁdhiḥ śam u santu rāyaḥ | śaṁ naḥ satyasya suyamasya śaṁsaḥ śaṁ no aryamā purujāto astu ||
शम्। नः॒। भगः॒। शम्। ऊँ॒ इति॑। नः॒। शंसः॑। अ॒स्तु॒। शम्। नः॒। पुर॑म्ऽधिः। शम्। ऊँ॒ इति॑। स॒न्तु॒। रायः॑। शम्। नः॒। स॒त्यस्य॑। सु॒ऽयम॑स्य। शंसः॑। शम्। नः॒। अ॒र्य॒मा। पु॒रु॒ऽजा॒तः। अ॒स्तु॒ ॥२॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को जैसे ऐश्वर्य आदि सुख करनेवाले हों, वैसे विधान करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यैर्यथैश्वर्यादीनि सुखकराणि स्युस्तथा विधेयमित्याह ॥
हे मनुष्या ! यथा नो भगः शं नः शंसः शमु पुरन्धिः शमस्तु नः रायः शमु सन्तु नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं पुरुजातोऽर्यमा नः शमस्तु तथा वयं प्रयतेमहि ॥२॥