न तद्दि॒वा न पृ॑थि॒व्यानु॑ मन्ये॒ न य॒ज्ञेन॒ नोत शमी॑भिरा॒भिः। उ॒ब्जन्तु॒ तं सु॒भ्वः१॒॑ पर्व॑तासो॒ नि ही॑यतामतिया॒जस्य॑ य॒ष्टा ॥१॥
na tad divā na pṛthivyānu manye na yajñena nota śamībhir ābhiḥ | ubjantu taṁ subhvaḥ parvatāso ni hīyatām atiyājasya yaṣṭā ||
न। तत्। दि॒वा। न। पृ॒थि॒व्या। अनु॑। म॒न्ये॒। न। य॒ज्ञेन॑। न। उ॒त। शमी॑भिः। आ॒भिः। उ॒ब्जन्तु॑। तम्। सु॒ऽभ्वः॑। पर्व॑तासः। नि। ही॒य॒ता॒म्। अ॒ति॒ऽया॒जस्य॑। य॒ष्टा ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सत्रह ऋचावाले बावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में किस से अधिक सुख होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ केनाऽधिकं सुखं जायत इत्याह ॥
हे मनुष्या ! यथा सुभ्वः पर्वतासस्तमुब्जन्तु तथा योऽतियाजस्य यष्टा वर्त्तते स तद्दिवा न नि हीयतां न पृथिव्यां न यज्ञेन नोताऽऽभिर्न शमीभिर्हीयतामहमनु मन्ये ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विश्वदेवाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.