अश्वि॑ना॒वेह ग॑च्छतं॒ नास॑त्या॒ मा वि वे॑नतम्। हं॒सावि॑व पतत॒मा सु॒ताँ उप॑ ॥१॥
aśvināv eha gacchataṁ nāsatyā mā vi venatam | haṁsāv iva patatam ā sutām̐ upa ||
अश्वि॑नौ। आ। इ॒ह। ग॒च्छ॒त॒म्। नास॑त्या। मा। वि। वे॒न॒त॒म। हं॒सौऽइ॑व। प॒त॒त॒म्। आ। सु॒तान्। उप॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब नव ऋचावाले अठहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे नासत्याऽश्विनौ ! युवामिह हंसाविवाऽऽगच्छतं सुतानुपाऽऽपततं मा वि वेनतं विरुद्धं मा कामयेथाम् ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अश्विपदवाच्या स्त्री-पुरुषांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.