उ॒त त्यं पु॒त्रम॒ग्रुवः॒ परा॑वृक्तं श॒तक्र॑तुः। उ॒क्थेष्विन्द्र॒ आभ॑जत् ॥१६॥
uta tyam putram agruvaḥ parāvṛktaṁ śatakratuḥ | uktheṣv indra ābhajat ||
उ॒त। त्यम्। पु॒त्रम्। अ॒ग्रुवः॑। परा॑ऽवृक्तम्। श॒तऽक्र॑तुः। उ॒क्थेषु॑। इन्द्रः॑। आ। अ॒भ॒ज॒त् ॥१६॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
यश्शतक्रतुरिन्द्र उक्थेषु त्यं परावृक्तं पुत्रमग्रुव इवाऽभजदुतापि शिक्षेत स सिद्धकार्य्यो भवेत् ॥१६॥