यो मर्त्ये॑ष्व॒मृत॑ ऋ॒तावा॑ दे॒वो दे॒वेष्व॑र॒तिर्नि॒धायि॑। होता॒ यजि॑ष्ठो म॒ह्ना शु॒चध्यै॑ ह॒व्यैर॒ग्निर्मनु॑ष ईर॒यध्यै॑ ॥१॥
yo martyeṣv amṛta ṛtāvā devo deveṣv aratir nidhāyi | hotā yajiṣṭho mahnā śucadhyai havyair agnir manuṣa īrayadhyai ||
यः। मर्त्येषु। अ॒मृतः॑। ऋ॒तऽवा॑। दे॒वः। दे॒वेषु॑। अ॒र॒तिः। नि॒ऽधायि॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। म॒ह्ना। शु॒चध्यै॑। ह॒व्यैः। अ॒ग्निः। मनु॑षः। ई॒र॒यध्यै॑॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब बीस ऋचावाले दूसरे सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में यथार्थ माननेवाले पुरुषों के कृत्य को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाप्तजनकृत्यमाह ॥
हे मनुष्या ! योऽग्निर्विद्युदिव मर्त्येष्वमृतः ऋतावा देवेषु देवोऽरतिर्होता मह्ना यजिष्ठो हव्यैस्सहितो मनुष ईरयध्यै शुचध्यै स हृदि निधायि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजा, प्रजा व आप्त (विद्वान) पुरुषांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.