पदार्थान्वयभाषाः - (आर्ष्टिषेणः-देवापिः-ऋषिः) ऋष्टि शस्त्र सेना में जिसकी है या ऋष्टि शस्त्र युक्त सेना जिसकी है, ऐसे राजा का पालक पुरोहित देवापि ऋषि अथवा मरुतों-सैनिक गण का रक्षक विद्युदग्नि (होत्रं निषीदन्) वृष्टियज्ञ को नियमितरूप से प्राप्त होता हुआ (देवसुमतिम्) विद्वान् ऋत्विजों की कल्याणमति को या मरुत् आदि आकाशीय देवों की कल्याणकारी प्रवृत्ति को (चिकित्वान्) स्वानुकूल किये हुए मेघ वर्षा के लिए (सः) वह (उत्तरस्मात्) ऊपर से-ऊपर के समुद्र से (अधरं समुद्रम्) नीचे पृथिवी के समुद्र की ओर (दिव्याः) आकाश में होनेवाले (वर्ष्याः) वर्षने के योग्य (अपः) जलों को (अभि-असृजत्) क्षारित करता है-गिराता है बरसाता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - शक्तिशाली सेनायुक्त राजा का पुरोहित अन्य ऋत्विक् विद्वानों की सहमति को प्राप्त कर विशेष यज्ञ करके आकाशीय जल समुद्र से नीचे पृथिवी के समुद्र तक जल की वृष्टि कराये एवं आकाश के अन्दर मरुतों-वात-स्तरों का रक्षक विद्युदग्नि अन्य भौतिक देवों के योग से सम्पन्न होकर ऊपर से नीचे पृथिवी तक जल को बरसा देता है ॥५॥