पदार्थान्वयभाषाः - (ककुद्मान्) महान् अग्नि, प्रशस्त तेजोवीर्यवाला (वृषभः) प्रकाशसुखवर्षक (गर्भः) द्यावापृथिवीमय जगत् के अन्दर स्थित (मुमोद) विकसित होता है या प्राणियों को सुख पहुँचाता है (अत्सः-अस्रेमा) बच्चा अल्प होता हुआ भी क्षीणबलवाला नहीं-बलवान् है (शिमीवान्-अरावीत्) वह कर्म करनेवाला अपने को घोषित करता है (सः-देवताति) वह दिव्य शक्तिवाला (उद्यतानि कृण्वन्) बलवाले कार्यों को करता हुआ (स्वेषु क्षयेषु प्रथमः-जिगाति) अपने स्थानों में-द्युलोक में सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से, पृथिवी पर अग्निरूप से प्रकृष्टतम-प्रमुख प्राप्त होता है, रहता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - महान् तेजोबल से सम्पन्न द्यावापृथिवीमय जगत् के अन्दर विकसित हुआ प्राणियों को प्रकाशसुख में बसानेवाला है, वह अल्प होता हुआ भी बलपूर्ण है, बड़े-बड़े बलशाली कार्यों को करनेवाला है। द्युलोक में सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से, पृथिवी पर अग्निरूप से प्रमुखतया वर्तमान है। राजा या विद्वान् को अग्नि से अनेक प्रकार का कार्य लेकर विविध लाभों को प्राप्त करना चाहिये तथा स्वयं भी उसी की भाँति अन्यों के लिये लाभदायी-उपकारक बनना चाहिये ॥२॥