पदार्थान्वयभाषाः - (रूपः-पञ्च पदानि-अनु-अरोहम्) शरीर में विमोह को प्राप्त हुआ मैं गृहस्थाश्रम से निवृत्त-विरक्त हुआ अपने को वानप्रस्थ अनुभव करता हूँ, अत एव शरीर के पाँच कोशों को मैं लाँघ चुका हूँ- लाँघता हूँ (व्रतेन चतुष्पदीम्-अन्वेमि) योगाभ्यासरूप सद्व्रत के द्वारा जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीय अवस्थाओं में तुरीय अवस्था को अनुभव करता हूँ, तब (एताम्-अक्षरेण प्रतिमिमे) इस अवस्था को ‘ओ३म्’ इस अक्षर अर्थात् अविनाशी ब्रह्म के साथ संयोग-सादृश्य को प्राप्त होता हूँ, इस प्रकार (ऋतस्य नाभौ-अधि सम् पुनामि) अध्यात्मयज्ञ के मध्य में अपने स्वात्मा को सम्यक् निर्मल करता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - मानव को गृहस्थ आश्रम पूरा करने के पश्चात् वैराग्यवान्-वानप्रस्थ होकर पाँच कोशों का अनुभव करना चाहिए तथा जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं में भी चलते हुए योगाभ्यास के द्वारा ‘ओ३म्’ अविनाशी ब्रह्म के साथ अपनी सङ्गतिरूप अध्यात्मयज्ञ के अन्दर अपने को पवित्र करना चाहिए ॥३॥