पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) मुमुक्षु विद्वान् जन (यस्मिन्-विदथे) जिस वेदनीय-अनुभवनीय में या स्वात्मरूप जिसके आश्रय पर अनुभव करते हैं, उस ऐसे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा में (मादयन्ते) हर्ष आनन्द को प्राप्त करते हैं, उसे (विवस्वतः-सदने धारयन्ते) मनुष्य के शरीर में बसनेवाले आत्मा के हृदयगृह में धारण करते हैं, जो परमात्मा (सूर्ये ज्योतिः-मासि-अक्तून्-अदधुः) सूर्य में प्रकाश चन्द्रमा में अन्धकार-अन्धकार में व्यक्त होनेवाले नक्षत्र-तारों को धारण करता है, उस (द्योतनिम्-अजस्रा परिचरतः) अपने प्रकाशित करनेवाले परमात्मा को सूर्य चन्द्रमा निरन्तर परिपूर्णरूप आश्रय कर रहे हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा में मुमुक्षुजन आनन्द प्राप्त करते हैं, उसे अपने हृदय में धारण करते हैं। वह सूर्य में प्रकाश चन्द्रमा में अन्धकार एवं चमकनेवाले तारों को आश्रित करता है। सूर्य और चन्द्रमा निरन्तर परमात्मा के आश्रय में रहते हैं। इसी तरह परमात्मा द्वारा उपासक हृदय में प्रकाश तेज और मन में शान्ति प्राप्त करता है, ज्ञानविकास करता है ॥७॥