पदार्थान्वयभाषाः - (सरमे) हे सरणशील स्तनयित्नु वाक् (अयं निधिः) यह कोष (अद्रिबुध्नः) मेघ जिसके बन्धक हैं, ऐसा है वह (गोभिः) बहुत गौवों के तुल्य (अश्वेभिः) बहुत घोड़ों के तुल्य (वसुभिः) बहुत धनों के तुल्य (न्यृष्टः) नितरां प्राप्त-अनायास प्राप्त (तं पणयः रक्षन्ति) उसकी गोरक्षक की भाँति मध्यस्थान के देव मेघ रक्षा करते हैं। (ये सुगोपाः) जो शोभन रक्षक हैं (रेकु पदम्) शङ्कित स्थान (अलकम्-आ जगन्थ) अलीक तुच्छ को प्राप्त हुई ॥७॥ आध्यात्मिकयोजना−हे सरणशील चेतना ! यह महासुखकोष बहुमूल्य है, स्तुतिकर्ता बन्धक व प्रवर्तक है, अनायास प्राप्त है, इन्द्रिय प्राण उसे रखते हैं, परन्तु नितान्त कल्याणकर है, यह शङ्कनीय है, व्यर्थ तू आई है ॥७॥
भावार्थभाषाः - मेघों के अन्दर जो जल निहित हैं, वे बहुमूल्य हैं, बहुत गौवों, घोड़ों, धनों के तुल्य अनायास प्राप्त हैं, प्राणिमात्र के लिये हितकर हैं, इनके अन्दर सदा रुके रहेंगे, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये। वृष्टिविज्ञानवेत्ता इस बात को जानते हैं और जानना चाहिए, मेघ बरसेंगे और बरसकर रहेंगे ॥७॥