परा॒ हि मे॒ विम॑न्यवः॒ पत॑न्ति॒ वस्य॑इष्टये। वयो॒ न व॑स॒तीरुप॑॥
parā hi me vimanyavaḥ patanti vasyaïṣṭaye | vayo na vasatīr upa ||
परा॑। हि। मे॒। विऽम॑न्यवः। पत॑न्ति। वस्यः॑ऽइष्टये। वयः॑। न। व॒स॒तीः। उप॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी उसी अर्थ को दृष्टान्त से अगले मन्त्र में सिद्ध किया है॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स एवार्थो दृष्टान्तेन साध्यते॥
हे जगदीश्वर ! त्वत्कृपया वयो वसतीर्विहाय दूरस्थानान्युपपतन्ति न इव। मे मम वासात् वस्यइष्टये विमन्यवः परा पतन्ति हि खलु दूरे गच्छन्तु॥४॥