प्रति॒ त्यं चारु॑मध्व॒रं गो॑पी॒थाय॒ प्र हू॑यसे। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥
prati tyaṁ cārum adhvaraṁ gopīthāya pra hūyase | marudbhir agna ā gahi ||
प्रति॑। त्यम्। चारु॑म्। अ॒ध्व॒रम्। गो॒ऽपी॒थाय॑। प्र। हू॒य॒से॒। म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒ग्ने॒। आ। ग॒हि॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-
स्वामी दयानन्द सरस्वती
तत्रादौ भौतिकाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।
योऽग्निर्मरुद्भिः सहागहि समन्तात्प्राप्नोति स विद्वद्भिस्त्यं तं चारुमध्वरं प्रति गोपीथाय प्रहूयसे प्रकृष्टतया शब्द्यते॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)अठराव्या सूक्तात सांगितलेल्या बृहस्पती इत्यादी पदार्थांबरोबर या सूक्तात ज्या अग्नी व वायूचे प्रतिपादन केलेले आहे त्यांच्या विद्येची एकता असल्यामुळे या एकोणिसाव्या सूक्ताची संगती जाणली पाहिजे.