मत्सि॑ नो॒ वस्य॑इष्टय॒ इन्द्र॑मिन्दो॒ वृषा वि॑श। ऋ॒घा॒यमा॑ण इन्वसि॒ शत्रु॒मन्ति॒ न वि॑न्दसि ॥
matsi no vasyaïṣṭaya indram indo vṛṣā viśa | ṛghāyamāṇa invasi śatrum anti na vindasi ||
मत्सि॑। नः॒। वस्यः॑ऽइष्टये। इन्द्र॑म्। इ॒न्दो॒ इति॑। वृषा॑। आ। वि॒श॒। ऋ॒घा॒यमा॑णः। इ॒न्व॒सि॒। शत्रु॑म्। अन्ति॑। न। वि॒न्द॒सि॒ ॥ १.१७६.१
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब एकसौ छिहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजविषय में विद्यानुकूल पुरुषार्थ योग को कहते हैं ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजविषये विद्यापुरुषार्थयोगमाह ।
हे इन्दो चन्द्रइव वर्त्तमानन्यायेश वृषाया ऋघायमाणस्त्वं नो वस्यइष्टये इन्द्रं प्राप्य मत्सि शत्रुमिन्वसि। अन्ति न विन्दसि स त्वं सेनामाविश ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्या, पुरुषार्थ व योगाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.