Go To Mantra

क्वे॑यथ॒ क्वेद॑सि पुरु॒त्रा चि॒द्धि ते॒ मन॑: । अल॑र्षि युध्म खजकृत्पुरंदर॒ प्र गा॑य॒त्रा अ॑गासिषुः ॥

English Transliteration

kveyatha kved asi purutrā cid dhi te manaḥ | alarṣi yudhma khajakṛt puraṁdara pra gāyatrā agāsiṣuḥ ||

Pad Path

क्व॑ । इ॒य॒थ॒ । क्व॑ । इत् । अ॒सि॒ । पु॒रु॒ऽत्रा । चि॒त् । हि । ते॒ । मनः॑ । अल॑र्षि । यु॒ध्म॒ । ख॒ज॒ऽकृ॒त् । पु॒र॒म्ऽद॒र॒ । प्र । गा॒य॒त्राः । अ॒गा॒सि॒षुः॒ ॥ ८.१.७

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:7 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:11» Mantra:2 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:7


Reads times

SHIV SHANKAR SHARMA

परम प्रीति दिखलाती हुई श्रुति कहती है।

Word-Meaning: - परमात्मा को मन से साक्षात् अनुभव करता हुआ भक्तजन इस प्रकार आमन्त्रित करे। हे भगवन् इन्द्र ! (क्व) कहाँ (इयथ) तू चला गया। (क्व+इत्+असि) इस समय तू कहाँ है। मालूम पड़ता है कि (ते+मनः) तेरा मन (पुरुत्रा) बहुत भक्तजनों में (चित्+हि) निश्चय करके आसक्त है। (युध्म) हे युध्म१ ! (खजकृत्) हे खजकृत्२ ! (पुरन्दर) हे पुरन्दर३ ! केवल भक्तजनों में ही तेरा मन आसक्त नहीं (अलर्षि) तू सर्वत्र व्यापक भी है, अतः तेरा मन सर्वत्र है, इसमें सन्देह नहीं। इसलिये (गायत्राः) गायक=सेवक जन तुझको (प्र) अच्छे प्रकार सदा (अगासिषुः) गाया करते हैं ॥७॥
Connotation: - मन को वश में करके परमात्मा का ध्यान करना चाहिये। अज्ञानी जन लोगों को प्रसन्न करने के लिये, जनता में मेरी भक्ति प्रसिद्ध हो, इस अभिप्राय से माला घुमाता हुआ लोगों के साथ नाना बातें करता हुआ विक्षिप्त मन से भगवान् का नाम जपता है और ईश्वरीय आज्ञा का उल्लङ्घन कर आचरण करता है। वैसे कपटी पुरुष को परमात्मा दण्ड देता है, क्योंकि वह पुरन्दर है। हे राजाओ ! सेनानायको ! इतरजनो ! तथा पुरोहितो ! यदि तुम ज्ञानपूर्वक अपने स्वार्थ के लिये निरपराधी प्रजाओं में अन्याय करोगे, तो वह पुरन्दर तुम्हारे सब नगरों को और प्रिय वस्तुओं को दग्ध और हरण कर लेगा। इस बात का सदा स्मरण रक्खो, जिस हेतु वह युध्म, खजकृत् और पुरन्दर है। यदि तुम्हारे हाथ में शतघ्नी या सहस्रघ्नी आयुध है, तो उसके हाथ में महास्त्र वज्र है, जिसका जगत् निवारण नहीं कर सकता है ॥७॥
Footnote: १−युध्म−यु+ध+म तीन तीन पदों से बना है । (युनक्ति दधाति तथा निर्माति यः सः) जो परमात्मा यथायोग्य सब पदार्थों को मिलाता है, मिलाकर धारण-पोषण करता है और नित्य नव-२ वस्तु को बनाता है, उसको युध्म कहते हैं अथवा जीवपक्ष में (युध्यत इति युध्मः) जो युद्धकुशल है, वह युध्म। सत्यव्रती जीव को पापों से घोर संग्राम करना पड़ता है। सूर्य पक्ष में अन्धकार से और मेघादिकों से, मानो, सूर्य को महासमर करना पड़ता है। आरोप से ईश्वर में भी युद्ध करना घट सकता है, क्योंकि पापी सन्तानों को सुमार्ग पर लाने के लिये, मानो, वह प्रयत्न करता है। देखने में केवल एक ही युध् धातु से यह बना है, ऐसा प्रतीत होता है। परन्तु प्राचीन शैली देखिये। इन्द्र, अग्नि आदि शब्दों की रचना पर ध्यान दीजिये। २−खजकृत्−ख=आकाश। ज=जात। आकाशस्थित सूर्यादिकों को खज कहते हैं। खजान् करोतीति खजकृत्। उनको जो रचता है, वह खजकृत् परमात्मा। खज युद्ध का भी नाम है। ३−पुरन्दर−यह इन्द्र के विशेषण में बहुत प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण इन्द्र के अनेक नामों में से यह एक प्रधान नाम है। यथा−वृत्राणि जिघ्नसे पुरन्दर ॥ ऋ० १।१०२।७। हे पुरन्दर आप निखिल विघ्नों का नाश करते हैं। स वृत्रहेन्द्रः कृष्णयोनीः पुरन्दरो दासीरैरयद्वि ॥ ऋ० २।२०।७। वह पुरन्दर इन्द्र दुष्टकर्मचारिणी विनाशयित्री स्त्रियों को दूर फेंक देता है। कहीं अग्नि के विशेषण में भी यह शब्द आया है। इन्द्र के वर्णन में आता है कि यह दासों (दुष्टजनों) के प्रस्तरमय नगरों को भी विनष्ट कर देता है−शतमश्मन्मर्यानां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् ॥ ऋ० ४।३०।२०। इन्द्र (शतम्) सैकड़ों (अश्मन्मयीनाम्) प्रस्तरमय (पुराम्) नगरों को (व्यास्यत्) तोड़-फोड़ कर फेंक देता है। इस प्रकार के शब्दों और वर्णन को लेकर ऐतिहासिक समय में कल्पित इतिहास अनेक बनाए गए ॥७॥
Reads times

ARYAMUNI

अब परमात्मा को सर्वव्यापक कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (युध्म, खजकृत्) हे युद्धकुशल, युद्ध करनेवाले (पुरन्दर) अविद्यासमूहनाशक परमात्मन् ! (क्व, इयथ) आप किस एक देश में विद्यमान थे (क्व, इत्, असि) आप कहाँ विद्यमान हैं ? यह शङ्का नहीं करनी चाहिये (हि) क्योंकि (ते, मनः) आपका ज्ञान (पुरुत्रा, चित्) सर्वत्र ही है (अलर्षि) आप अन्तःकरण में विराजमान हो (गायत्राः) स्तोता लोग (प्रागासिषुः) आपकी स्तुति करते हैं ॥७॥
Connotation: - इस मन्त्र में प्रश्नोत्तर की रीति से परमात्मा की सर्वव्यापकता बोधन की गई है, जिसका भाव यह है कि हे परमात्मन् ! आप पहले कहाँ थे, वर्तमान समय में कहाँ हैं और भविष्य में कहाँ होंगे ? इत्यादि प्रश्न परमात्मा में नहीं हो सकते, क्योंकि वह अन्य पदार्थों की न्याईं एकदेशावच्छिन्न नहीं, अपने ज्ञानस्वरूप से सर्वत्र विद्यमान होने के कारण मन्त्र में “पुरुत्रा चिद्धिते मनः” इत्यादि प्रतीकों से उसको सर्वव्यापक वर्णन किया गया है, इसलिये उचित है कि परमात्मा को सर्वव्यापक मानकर जिज्ञासु उसके ज्ञानरूप प्रदीप से अपने हृदय को प्रकाशित करें और किसी काल तथा किसी स्थान में भी पापकर्म करने का साहस न करें, क्योंकि वह प्रत्येक स्थान में हर समय हमारे कर्मों का द्रष्टा है ॥७॥
Reads times

SHIV SHANKAR SHARMA

परमां प्रीतिं दर्शयन्ती श्रुतिराह।

Word-Meaning: - परमात्मानं मनसा साक्षादनुभवन्निव भक्त आमन्त्रयेत। भगवन्निन्द्र ! इयन्तं कालम्। त्वम्। क्व=कस्मिन् प्रदेशे। इयथ=गतवानसि। क्व इत्=कुत्र च। सम्प्रति। असि=वर्तसे। ते तव। मनः। पुरुत्रा=पुरुषु बहुषु सेवकेषु। चिद्धि=निश्चयेन। आसक्तं वर्तते। हे युध्म=यः सर्वान् पदार्थान् युनक्ति दधाति नवं नवञ्च निर्माति स युध्मः। तत्सम्बोधने। हे खजकृत्=खे आकाशे जायन्ते ये ते खजाः सूर्य्यादयः। तान् यः करोति स खजकृत्। तत्सम्बोधने। हे पुरन्दर=दुर्जनपुरां विनाशयितः ! पापिनां दुष्टानां पुरो दारयति भिनत्तीति पुरन्दरः। सम्प्रति क्व सा जनकपुरी, क्व तत् पाटलिपुत्रनामधेयं नगरम्। हे भगवन् ! त्वम्। सर्वं जगदिदं निर्माय। अलर्षि=तस्मिन् व्याप्नोषि। अतो गायत्राः=गायकाः सेवका जनाः सर्वदा। त्वामेव। प्र अगासिषुः=प्रगायन्ति। प्रियवस्तूनि च धक्ष्यत्यपहरिष्यति चेति सर्वदा ध्यायथ। यतः स युध्मः खजकृत् पुरन्दरोऽस्ति। यदि युष्माकं हस्ते शतघ्नी वा सहस्रघ्नी वाऽऽयुधं वर्तते, तर्हि तस्य पाणौ महास्त्रं वज्रमस्ति, यन्निवारयितुं जगदपि न शक्नोति ॥७॥
Reads times

ARYAMUNI

अथ परमात्मनो विभुत्वं वर्ण्यते।

Word-Meaning: - (युध्म) हे योद्धः (पुरन्दर) अविद्यासमूहनाशक ! (खजकृत्) युद्धकृत् (क्व, इयथ) भवान् क्व एकदेशे आसीत् (क्व, इत्, असि) क्व चैकदेशे वर्तसे इति न शङ्कनीयं (हि) यतः (ते) त्वत्सम्बन्धि (मनः) ज्ञानम् (पुरुत्रा, चित्) सर्वदेशेषु एव (अलर्षि) अतो ममान्तःकरणे प्रविश (गायत्राः) स्तोतारोऽस्मत्प्रभृतयः (प्रागासिषुः) स्तुवन्ति त्वाम् ॥७॥