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य ऋ॒ज्रा मह्यं॑ माम॒हे स॒ह त्व॒चा हि॑र॒ण्यया॑ । ए॒ष विश्वा॑न्य॒भ्य॑स्तु॒ सौभ॑गास॒ङ्गस्य॑ स्व॒नद्र॑थः ॥

English Transliteration

ya ṛjrā mahyam māmahe saha tvacā hiraṇyayā | eṣa viśvāny abhy astu saubhagāsaṅgasya svanadrathaḥ ||

Pad Path

यः । ऋ॒ज्रा । मह्य॑म् । म॒म॒हे । स॒ह । त्व॒चा । हि॒र॒ण्यया॑ । ए॒षः । विश्वा॑नि । अ॒भि । अ॒स्तु॒ । सौभ॑गा । आ॒स॒ङ्गस्य॑ । स्व॒नत्ऽर॑थः ॥ ८.१.३२

Rigveda » Mandal:8» Sukta:1» Mantra:32 | Ashtak:5» Adhyay:7» Varga:16» Mantra:2 | Mandal:8» Anuvak:1» Mantra:32


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SHIV SHANKAR SHARMA

दाता से जो कुछ प्राप्त हो, उससे तुष्ट होकर उसकी कृतज्ञता प्रकाश करे, यह इससे उपदेश देते हैं। परमात्मा के दानों को दिखलाने के लिये प्रथम लौकिक दान और कृतज्ञता दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (यः) जो कोई (हिरण्यया) सुवर्णमयी (त्वचा+सह) चर्म के साथ अर्थात् विविध सुवर्ण, रजत, पशु और भूमि के साथ (ऋज्रा) गमनशील अस्थायी वस्तु (मह्यम्) मुझको (ममहे) देता है। (एषः) वह यह दानी पुरुष (विश्वानि) समस्त (सौभगा) सौभाग्यों को (अभ्यस्तु) प्राप्त करे और उस (आसङ्ग१स्य) परमदानी पुरुष का (रथः) रमणीय रथ (स्वन२त्) सर्वदा सुवर्णादिकों से अलङ्कृत हो शब्दायमान होवे। अथवा (आसङ्गस्य) उस दाता का (एषः) यह आत्मा (स्वनद्रथः) शब्दायमान रथ से युक्त होकर सकल सौभाग्यों को प्राप्त करे ॥३२॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! तुम सदा अपने उपकारी माता, पिता, आचार्य, गुरु, राजा, रक्षक, दाता और वैद्य प्रभृतियों के कृतज्ञ बनो और ईश्वर की आज्ञा पालन करते हुए तुम सर्वथा असमर्थ दीन हीन और अनाथों की रक्षा करने में सन्नद्ध रहो ॥३२॥
Footnote: १−आसङ्ग−जो याचकों के साथ सदा अच्छे प्रकार संमिलित हुआ करता है, उसको आसङ्ग कहते हैं। २−स्वनत्=स्वनन् यह छान्दस प्रयोग है। यहाँ पुल्लिङ्ग के स्थान में नपुंसकवत् प्रयुक्त हुआ है अथवा “स्वनन् रथः स्वनद्रथः” ऐसा समास भी हो सकता है ॥३२॥
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ARYAMUNI

अब ऐश्वर्य्याभिलाषियों के लिये ज्ञानोत्पादन करने का कथन करते हैं।

Word-Meaning: - (यः) जो परमात्मा (मह्यं) मेरे लिये (हिरण्यया, त्वचा) दिव्यज्ञानकारक त्वगिन्द्रिय के (सह) सहित (ऋज्रा) अनेक गतिशील पदार्थ (मामहे) देता है (एषः) यह (स्वनद्रथः) शब्दायमान ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा (आसङ्गस्य) अपने में आसक्त उपासक के (अभि) अभिमुख (विश्वानि, सौभगा) सकल शुभ ऐश्वर्यों को (अस्तु) सम्पादन करे ॥३२॥
Connotation: - इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा ने सृष्टि में अनेकानेक विचित्र पदार्थ और उनको जानने के लिये विचित्र शक्ति प्रदान की है, अतएव ऐश्वर्य्याभिलाषी पुरुष को उचित है कि वह सर्वदा उनके ज्ञानोत्पादन का प्रयत्न करे और जो निरन्तर परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त हुए ज्ञानप्राप्त करते हैं, उनको परमात्मा सकल ऐश्वर्य्यों का स्वामी बनाते हैं, इसलिये प्रत्येक उपासक का कर्तव्य है कि वह परमात्मा की उपासना द्वारा ज्ञान प्राप्त करे ॥३२॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

यत्किमपि दातुर्लभेत तेनैव तुष्टः सन् कृतज्ञतां प्रकाशयेदित्यनयोपदिशति। परमात्मदानदर्शनाय प्रथमं लौकिकदानं कृतज्ञतां च दर्शयति।

Word-Meaning: - यः=खलु ईश्वरादन्यः कश्चिद्दाता। हिरण्यया=सुवर्णमय्या। त्वचा=चर्मणा। सह। बहुभिः सुवर्णैः सहितानीत्यर्थः। ऋज्रा=ऋजूनि, गमनशीलानि अस्थायीनि धनानि। मह्यम्। ममहे=ददाति। मंहतिर्दानकर्मा। स एष दाता पुरुषः। विश्वानि=समस्तानि। सौभगा=सौभगानि=सौभाग्यानि कल्याणानि। अभ्यस्तु=अभिभवतु=प्राप्नोतु यावत्। तथा तस्य आसङ्गस्य=अर्थिभिः सह यः सदा आसंगच्छते=संमिलितो भवति स आसङ्गः=परमदानी पुरुषः। तस्य। रथो रमणीयो रथादिः। स्वनत्=स्वनन्=सुवर्णमयैरायोजनैः सज्जीकृतः सन् सर्वदा शब्दायमानो भवतु। इत्याशास्महे परमात्मनः। यद्वा स्वनद्रथ इत्येकं पदम्। स एष आसङ्गस्य दातुरात्मा। स्वनद्रथः=शब्दायमानरथः सन्। सर्वाणि सौभगानि प्राप्नोत्वित्यर्थः ॥३२॥
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ARYAMUNI

अथैश्वर्याभिलाषिणः ज्ञानमुत्पादयन्त्विति कथ्यते।

Word-Meaning: - (यः) यः परमात्मा (मह्यं) मदर्थं (हिरण्यया, त्वचा) दिव्येन त्वगिन्द्रियेण (सह) सहितान् (ऋज्रा) गतिशीलान् पदार्थान् (मामहे) दत्तवान् (एषः) एष परमात्मा (स्वनद्रथः) शब्दायमानब्रह्माण्डस्वामी (आसङ्गस्य) स्वस्मिन्नासक्तस्यो- पासकस्य (अभि) अभिमुखं (विश्वानि, सौभगा) सर्वाणि ऐश्वर्याणि (अस्तु) भावयतु−“अन्तर्भूतण्यर्थः” ॥३२॥