मि॒त्रं न यं सुधि॑तं॒ भृग॑वो द॒धुर्वन॒स्पता॒वीड्य॑मू॒र्ध्वशो॑चिषम्। स त्वं सुप्री॑तो वी॒तह॑व्ये अद्भुत॒ प्रश॑स्तिभिर्महयसे दि॒वेदि॑वे ॥२॥
mitraṁ na yaṁ sudhitam bhṛgavo dadhur vanaspatāv īḍyam ūrdhvaśociṣam | sa tvaṁ suprīto vītahavye adbhuta praśastibhir mahayase dive-dive ||
मि॒त्रम्। न। यम्। सु॒ऽधि॑तम्। भृग॑वः। द॒धुः। वन॒स्पतौ॑। ईड्य॑म्। ऊ॒र्ध्वऽशो॑चिषम्। सः। त्वम्। सुऽप्री॑तः। वी॒तऽह॑व्ये। अ॒द्भु॒त॒। प्रश॑स्तिऽभिः। म॒ह॒य॒से॒। दि॒वेऽदि॑वे ॥२॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
SWAMI DAYANAND SARSWATI
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे अद्भुत ! यं मित्रं न सुधितं वनस्पतावीड्यमूर्ध्वशोचिषं भृगवो दधुः स त्वं प्रशस्तिभिर्दिवेदिवे सुप्रीतः सन् वीतहव्ये महयसे तस्मात्सेवनीयोऽसि ॥२॥
MATA SAVITA JOSHI
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