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वृ॒ञ्जे ह॒ यन्नम॑सा ब॒र्हिर॒ग्नावया॑मि॒ स्रुग्घृ॒तव॑ती सुवृ॒क्तिः। अम्य॑क्षि॒ सद्म॒ सद॑ने पृथि॒व्या अश्रा॑यि य॒ज्ञः सूर्ये॒ न चक्षुः॑ ॥५॥

English Transliteration

vṛñje ha yan namasā barhir agnāv ayāmi srug ghṛtavatī suvṛktiḥ | amyakṣi sadma sadane pṛthivyā aśrāyi yajñaḥ sūrye na cakṣuḥ ||

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Pad Path

वृ॒ञ्जे। ह॒। यत्। नम॑सा। ब॒र्हिः। अ॒ग्नौ। अया॑मि। स्रुक्। घृ॒तऽव॑ती। सु॒ऽवृ॒क्तिः। अम्य॑क्षि। सद्म॑। सद॑ने। पृ॒थि॒व्याः। अश्रा॑यि। य॒ज्ञः। सूर्ये॑। न। चक्षुः॑ ॥५॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:11» Mantra:5 | Ashtak:4» Adhyay:5» Varga:13» Mantra:5 | Mandal:6» Anuvak:1» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे विद्वानो ! मैं (नमसा) अन्न आदि से (अग्नौ) अग्नि में (यत्) जिस (बर्हिः) घृत का (ह) निश्चय करके (वृञ्जे) त्याग करता हूँ और जो (सुवृक्तिः) सुवृक्ति अर्थात् उत्तम प्रकार चलते हैं जिसमें वह (घृतवती) बहुत जल से युक्त नदी (स्रुक्) बहनेवाली (अम्यक्षि) चलती है उसको (अयामि) प्राप्त होता हूँ और जो (यज्ञः) प्राप्त होने योग्य यज्ञ (सूर्य्ये) सूर्य्य में (चक्षुः) नेत्र (न) जैसे वैसे (पृथिव्याः) पृथिवी के (सदने) स्थान में (सद्म) रहने का स्थान अर्थात् गृह का (अश्रायि) आश्रयण करता है, उसका सब लोग अनुष्ठान करो ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे हवन करनेवाले जन अग्नि में स्रुवा से घृत छोड़ते हैं, वैसे विद्वान् जन अन्य की बुद्धि में विद्या को छोड़ें और जैसे सूर्य्य के प्रकाश में नेत्र व्याप्त होता है, वैसे ही हवन किया गया द्रव्य अन्तरिक्ष मे व्याप्त होता है ॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

Anvay:

हे विद्वांसोऽहं नमसाऽग्नौ यद्बर्हिर्ह वृञ्जे या सुवृक्तिर्घृतवती स्रुगम्यक्षि तामयामि यो यज्ञः सूर्य्ये चक्षुर्न पृथिव्याः सदने सद्म अश्रायि तं सर्वेऽनुतिष्ठन्तु ॥५॥

Word-Meaning: - (वृञ्जे) त्यजामि (ह) किल (यत्) (नमसा) अन्नादिना (बर्हिः) घृतम् (अग्नौ) पावके (अयामि) प्राप्नोमि (स्रुक्) या स्रवति सा (घृतवती) बहूदकयुक्ता नदी (सुवृक्तिः) सुष्ठु व्रजन्ति यस्यां सा (अम्यक्षि) गच्छति (सद्म) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (सदने) स्थाने (पृथिव्याः) भूमेः (अश्रायि) आश्रयति (यज्ञः) सङ्गन्तव्यः (सूर्य्ये) (न) इव (चक्षुः) नेत्रम् ॥५॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः । यथा होतारोऽग्नौ स्रुचा घृतं त्यजन्ति तथा विद्वांसोऽन्यबुद्धौ विद्यां त्यजन्तु यथा सूर्य्यप्रकाशे चक्षुर्व्याप्नोति तथैव हुतं द्रव्यमन्तरिक्षे व्याप्नोति ॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे यज्ञ करणारे लोक अग्नीत स्रुवेने (चमच्याने) तूप सोडतात तशी विद्वान लोकांनी इतरांना विद्या द्यावी व जसा सूर्याचा प्रकाश नेत्रांना व्यापतो तसे यज्ञातील द्रव्य अंतरिक्षाला व्यापते. ॥ ५ ॥