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स जा॑यत प्रथ॒मः प॒स्त्या॑सु म॒हो बु॒ध्ने रज॑सो अ॒स्य योनौ॑। अ॒पाद॑शी॒र्षा गु॒हमा॑नो॒ अन्ता॒योयु॑वानो वृष॒भस्य॑ नी॒ळे ॥११॥

English Transliteration

sa jāyata prathamaḥ pastyāsu maho budhne rajaso asya yonau | apād aśīrṣā guhamāno antāyoyuvāno vṛṣabhasya nīḻe ||

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Pad Path

सः। जा॒य॒त॒। प्र॒थ॒मः। प॒स्त्या॑सु। म॒हः। बु॒ध्ने। रज॑सः। अ॒स्य। योनौ॑। अ॒पात्। अ॒शी॒र्षा। गु॒हमा॑नः। अन्ता॑। आ॒ऽयोयु॑वानः। वृ॒ष॒भस्य॑। नी॒ळे॥११॥

Rigveda » Mandal:4» Sukta:1» Mantra:11 | Ashtak:3» Adhyay:4» Varga:14» Mantra:1 | Mandal:4» Anuvak:1» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब इस अगले मन्त्र में अग्निपद से परमात्मा के विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे (सः) बिजुलीरूप अग्नि (प्रथमः) प्रथम सूर्य्य (महः) बड़े (बुध्ने) अन्तरिक्ष में (अस्य) इस (रजसः) लोकों के समूह के (योनौ) कारण में (जायत) उत्पन्न होता है और जैसे (गुहमानः) ढंपा हुआ (अपात्) पैरों और (अशीर्षा) शिर आदि (आयोयुवानः) सब प्रकार अत्यन्त मिलाने वा अलग करनेवाला (वृषभस्य) वृष्टि करनेवाले सूर्य्य के (नीळे) स्थान में (अन्ता) समीप में उत्पन्न होता है, वैसे ही आप लोग भी (पस्त्यासु) घरों में उत्पन्न अर्थात् प्रकट हूजिये ॥११॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अन्तरहित आकाश में प्रकृति से महत् तत्त्व अर्थात् बुद्धि आदि के क्रम से यह संसार उत्पन्न हुआ इस संसार में अवयवों से रहित मिलते हुए जीव परमात्मा के समीप में वर्त्तमान हो, गृहों में उत्पन्न होते शरीर को धारण करते और त्यागते हैं, उस सब के स्वामी का हृदय में ध्यान कर सुखी हूजिये ॥११॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथाग्निपदेन परमात्मविषयमाह ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! यथा स प्रथमः सूर्य्यो महो बुध्नेऽस्य रजसो योनौ जायत यथा गुहमानोऽपादशीर्षा आयोयुवानो वृषभस्य नीळेऽन्ता जायत तथैव यूयमपि पस्त्यासु जायध्वम् ॥११॥

Word-Meaning: - (सः) विद्युद्रूपोऽग्निः (जायत) जायते। अत्राडभावः (प्रथमः) आदिमः (पस्त्यासु) गृहेषु (महः) महति (बुध्ने) अन्तरिक्षे (रजसः) लोकसमूहस्य (अस्य) (योनौ) कारणे (अपात्) पादरहितः (अशीर्षा) शिरआद्यवयवरहितः (गुहमानः) संवृतः सन् (अन्ता) अन्ते समीपे (आयोयुवानः) समन्ताद् भृशं मिश्रयिता विभाजको वा (वृषभस्य) वर्षकस्य सूर्य्यस्य (नीळे) गृहे ॥११॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथाऽनन्त आकाशे प्रकृतेर्महदादि क्रमेणेदं जगज्जातमत्र निरवयवा जीवाः संवृताः सन्तः परमात्मनः समीपे वर्त्तमाना गृहेषु जायन्ते शरीरं धरन्ति त्यजन्ति च तं सर्वेश्वरमन्तर्ध्यात्वा सुखिनो भवत ॥११॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो जसे अनंत आकाशात प्रकृतीपासून महत्तत्त्व इत्यादी क्रमाने हे जग उत्पन्न झाले. या जगात अवयवरहित जीव परमेश्वराजवळ असून गृही जन्मतात, शरीर धारण करतात व त्याचा त्याग करतात. त्या सर्वांच्या स्वामीचे हृदयात ध्यान करून सुखी व्हा. ॥ ११ ॥