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शुचिं॒ न याम॑न्निषि॒रं स्व॒र्दृशं॑ के॒तुं दि॒वो रो॑चन॒स्थामु॑ष॒र्बुध॑म्। अ॒ग्निं मू॒र्धानं॑ दि॒वो अप्र॑तिष्कुतं॒ तमी॑महे॒ नम॑सा वा॒जिनं॑ बृ॒हत्॥

English Transliteration

śuciṁ na yāmann iṣiraṁ svardṛśaṁ ketuṁ divo rocanasthām uṣarbudham | agnim mūrdhānaṁ divo apratiṣkutaṁ tam īmahe namasā vājinam bṛhat ||

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Pad Path

शुचि॑म्। न। याम॑न्। इ॒षि॒रम्। स्वः॒ऽदृश॑म्। के॒तुम्। दि॒वः। रो॒च॒न॒ऽस्थाम्। उ॒षः॒ऽबुध॑म्। अ॒ग्निम्। मू॒र्धान॑म्। दि॒वः। अप्र॑तिऽस्कुतम्। तम्। ई॒म॒हे॒। नम॑सा। वा॒जिन॑म्। बृ॒हत्॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:2» Mantra:14 | Ashtak:2» Adhyay:8» Varga:19» Mantra:4 | Mandal:3» Anuvak:1» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! हम लोग विद्वानों की उत्तेजना से (नमसा) सत्कार से जिस (शुचिम्) पवित्र और पवित्र करनेवाले के (न) समान (यामन्) जिसके गमन करते हैं उस मार्ग में (इषिरम्) इच्छा करने योग्य (स्वर्दृशम्) जिससे कि सुख दीखता है उस (केतुम्) रूपादिप्रापक (दिवः) प्रकाश के बीच (रोचनस्थाम्) उजाले में स्थित होने (उषर्बुधम्) प्रातःकाल बोध दिलाने और (दिवः) दिव्य आकाश के बीच (मूर्द्धानम्) खींचने से बाँधने (अप्रतिष्कुतम्) इधर-उधर से लोकान्तर के चारों ओर से भ्रमणरहित (बृहत्) महान् (वाजिनम्) बहुत वेगवाले (अग्निम्) अग्नि को (ईमहे) याचते हैं (तम्) उस अग्नि को उन हम लोगों से तुम भी चाहो वा माँगो ॥१४॥
Connotation: - मनुष्यों को आप्त विद्वानों से अग्न्यादि विद्या प्राप्त करनी चाहिये, जो जिससे विद्या ग्रहण की इच्छा करे, वह उसका निरन्तर सत्कार करे, सूर्य किसी लोक का परिक्रमण नहीं करता और सबसे बड़ा भी है ॥१४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मनुष्या वयं विदुषां सकाशान्नमसा शुचिं न यामन्निषिरं स्वर्दृशं केतुं दिवो रोचनस्थामुषर्बुधं दिवो मूर्द्धानमप्रतिष्कुतं बृहद्वाजिनमग्निमीमहे तं तेभ्यो यूयमपि याचत ॥१४॥

Word-Meaning: - (शुचिम्) पवित्रं शुद्धिकारकम् (न) इव (यामन्) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन्मार्गे (इषिरम्) एष्टव्यम् (स्वर्दृशम्) स्वः सुखं दृश्यते यस्मात्तम् (केतुम्) रूपादिप्रापकम् (दिवः) प्रकाशस्य (रोचनस्थाम्) रोचने प्रदीप्ते तिष्ठति तम् (उषर्बुधम्) य उषसि बोधयति तम् (अग्निम्) वह्निम् (मूर्द्धानम्) आकर्षणेन बद्धारम् (दिवः) दिव्याकाशस्य मध्ये (अप्रतिष्कुतम्) इतस्ततो लोकान्तरस्याभितो भ्रमणरहितम् (तम्) (ईमहे) (नमसा) सत्कारेण (वाजिनम्) बहुवेगवन्तम् (बृहत्) महान्तम्। अत्र सुपां सुलुगिति अमो लुक् ॥१४॥
Connotation: - मनुष्यैराप्तेभ्यो विद्वद्भ्योऽग्न्यादिविद्याः प्राप्तव्याः । यो यस्माद्विद्यां जिघृक्षन्तं सततं सत्कुर्य्यात्। सूर्यः कस्यापि लोकस्य परिक्रमणं न करोति सर्वेभ्यो महांश्च ॥१४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - माणसांनी आप्त विद्वानांकडून अग्नी इत्यादी विद्या प्राप्त केली पाहिजे. जो ज्याच्याकडून जी विद्या ग्रहण करण्याची इच्छा करतो त्याने त्याचा निरंतर सत्कार केला पाहिजे. सूर्य कोणत्याही गोलाचे परिक्रमण करीत नाही. तो सर्वात मोठा आहे. ॥ १४ ॥