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आ व॑क्षि दे॒वाँ इ॒ह वि॑प्र॒ यक्षि॑ चो॒शन्हो॑त॒र्नि ष॑दा॒ योनि॑षु त्रि॒षु। प्रति॑ वीहि॒ प्रस्थि॑तं सो॒म्यं मधु॒ पिबाग्नी॑ध्रा॒त्तव॑ भा॒गस्य॑ तृप्णुहि॥

English Transliteration

ā vakṣi devām̐ iha vipra yakṣi cośan hotar ni ṣadā yoniṣu triṣu | prati vīhi prasthitaṁ somyam madhu pibāgnīdhrāt tava bhāgasya tṛpṇuhi ||

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Pad Path

आ। व॒क्षि॒। दे॒वान्। इ॒ह। वि॒प्र॒। यक्षि॑। च॒। उ॒शन्। हो॒तः॒। नि। स॒द॒। योनि॑षु। त्रि॒षु। प्रति॑। वी॒हि॒। प्रऽस्थि॑तम्। सो॒म्यम्। मधु॑। पि॒ब॒। आग्नी॑ध्रात्। तव॑। भा॒गस्य॑। तृ॒प्णु॒हि॒॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:36» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:7» Varga:25» Mantra:4 | Mandal:2» Anuvak:4» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (होतः) सुख के देनेवाले (उशन्) कामना करते हुए (विप्र) मेधावी जन ! आप नियत अपने कर्म वा (इह) इस संसार में (देवान्) दिव्य गुणों को (आ,वक्षि) अच्छे प्रकार कहते (च) और प्राप्त हुए कर्मों को (यक्षि) प्राप्त होवे तथा दूसरे प्राणियों को उनका उपदेश देते हैं इसी से (त्रिषु) कर्म-उपासना-ज्ञान इन तीनों (योनिषु) निमित्तों में (निषद) निरन्तर स्थिर हों और (प्रस्थितम्) प्रकर्षता से स्थिति विषय को (प्रति,वीहि) प्राप्त होओ (सोम्यम्) शीतल गुण सम्पन्न (मधु) मीठे जल को (पिब) पीओ और (तव) तुम्हारे (भागस्य) सेवने योग्य व्यवहार के (आग्नीध्रात्) उस भाग से जिससे अग्नि को धारण करते हैं (तृप्णुहि) तृप्त हूजिये ॥४॥
Connotation: - जो मनुष्य कर्मोपासना और ज्ञानों में प्रयत्न कर सत्य की कामना करते हुए मनुष्यों को अध्यापन और उपदेश से विद्वान् करते हैं, वे नित्य सुख को प्राप्त होते हैं ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे होतरुशन् विप्र यतस्त्वमिह देवानावक्षि सङ्गतानि कर्माणि च यक्षि तस्मात्त्रिषु योनिषु निषद प्रस्थितं प्रति वीहि सोम्यं मधु पिब तव भागस्याग्नीध्रात्तृप्णुहि ॥४॥

Word-Meaning: - (आ) (वक्षि) वदसि (देवान्) दिव्यगुणान् (इह) संसारे (विप्र) (यक्षि) यजसि (च) (उशन्) कामयमानः (होतः) सुखप्रदातः (नि) नितराम् (सद) स्थिरो भव। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (योनिषु) निमित्तेषु (त्रिषु) कर्मोपासनाज्ञानेषु (प्रति) (वीहि) प्राप्नुहि (प्रस्थितम्) प्रकर्षेण स्थितम् (सोम्यम्) सोमगुणसम्पन्नम् (मधु) मधुरमुदकम्। मध्विति उदकना० नि० १। १२। (पिब) (आग्नीध्रात्) अग्निं धरति यस्मात् तस्मात् (तव) (भागस्य) भजनीयस्य (तृप्णुहि) ॥४॥
Connotation: - ये मनुष्याः कर्मोपासनाज्ञानेषु प्रयत्य सत्यं कामयन्तो मनुष्यानध्यापनोपदेशाभ्यां विदुषः कुर्वन्ति ते नित्यं सुखमश्नुवते ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जी माणसे कर्मोपासना, ज्ञान, प्रयत्न इत्यादींनी सत्याची कामना करतात व माणसांना अध्यापन, उपदेश यांनी विद्वान करतात ती नित्य सुख प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥