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ऊ॒र्ध्वो नः॑ पा॒ह्यंह॑सो॒ नि के॒तुना॒ विश्वं॒ सम॒त्रिणं॑ दह । कृ॒धी न॑ ऊ॒र्ध्वाञ्च॒रथा॑य जी॒वसे॑ वि॒दा दे॒वेषु॑ नो॒ दुवः॑ ॥

English Transliteration

ūrdhvo naḥ pāhy aṁhaso ni ketunā viśvaṁ sam atriṇaṁ daha | kṛdhī na ūrdhvāñ carathāya jīvase vidā deveṣu no duvaḥ ||

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Pad Path

ऊ॒र्ध्वः । नः॒ । पा॒हि॒ । अंह॑सः । नि । के॒तुना॑ । विश्व॑म् । सम् । इ॒त्रिण॑म् । द॒ह॒ । कृ॒धि । नः॒ । ऊ॒र्ध्वान् । च॒रथा॑य । जी॒वसे॑ । वि॒दाः । दे॒वेषु॑ । नः॒ । दुवः॑॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:36» Mantra:14 | Ashtak:1» Adhyay:3» Varga:10» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:8» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह सभापति कैसा होवे, यह अगले मंत्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे सभापते ! आप (केतुना) बुद्धि के दान से (नः) हम लोगों को (अंहसः) दूसरे का पदार्थ हरण रूप पाप से (निपाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये (विश्वम्) सब (अत्रिणम्) अन्याय से दूसरे के पदार्थों को खानेवाले शत्रुमात्र को (संदह) अच्छे प्रकार जलाइये और (ऊर्ध्वः) सबसे उत्कृष्ट आप (चरथाय) ज्ञान और सुख की प्राप्ति के लिये (नः) हम लोगों को (ऊर्ध्वान्) बड़े-२ गुण कर्म और स्वभाववाले (कृधि) कीजिये तथा (नः) हमको (देवेषु) धार्मिक विद्वानों में (जीवसे) संपूर्ण अवस्था होने के लिये (दुवः) सेवा को (विदाः) प्राप्त कीजिये ॥१४॥
Connotation: - अच्छे गुण कर्म और स्वभाववाले सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि राज्य की रक्षा नीति और दण्ड के भय से सब मनुष्यों कोपाप से हटा सब शत्रुओं को मार और विद्वानों की सब प्रकार सेवा करके प्रजा में ज्ञान सुख और अवस्था बढ़ाने के लिये सब प्राणियों को शुभगुणयुक्त सदा किया करे ॥१४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

(ऊर्ध्वः) सर्वोत्कृष्टः (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष (अंहसः) परपदार्थहरणरूपपापात्। अनेर्हुक् च। उ० ४।२२०#। इत्यसुन् प्रत्ययो हुगागमश्च। (नि) नितराम् (केतुना) प्रकृष्टज्ञानदानेन। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। निघं० ३।९। (विश्वम्) सर्वम् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) अत्ति भक्षयत्यन्यायेन परपदार्थान् यः स शत्रुस्तम् (दह) भस्मी (कृधि) कुरु। अत्रान्येषामपीति संहितायां दीर्घः। (नः) अस्मान् (ऊर्ध्वान्) उत्कृष्टगुणसुखसहितान् (चरथाय) चरणाय (जीवसे) जीवितुम्। जीव धातो स्तुमर्थेऽसे प्रत्ययः (विदाः) लम्भाय*। अत्र लोडर्थे लेट्। (देवेषु) विद्वत्स्वृतुषु वा। ऋतवो वै देवाः। श०। (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (दुवः) परिचर्याम् ॥१४॥ #[उ० ४।२१३। इति वै० यं० मुद्रितद्वितीयावृत्तौ।] *[लम्भय। सं०]

Anvay:

पुनः स कीदृश इत्याह।

Word-Meaning: - हे सभापते त्वं केतुना प्रज्ञादानेन नोंहसो निपाहि विश्वमत्रिणं शत्रुं संदह ऊर्ध्वस्त्वं चरथाय न ऊर्ध्वान् कृधि देवेषु जीवसे नो दुवो विदाः ॥१४॥
Connotation: - उत्कृष्टगुणस्वभावेन सभाध्यक्षेण राज्ञा राज्यनियमदण्डभयेन सर्वमनुष्यान् पापात् पृथक्कृत्थ सर्वान् शत्रून् दग्ध्वा विदुषः परिषेव्य ज्ञानसुखजीवनवर्द्धनाय सर्वे प्राणिन उत्कृष्टगुणाः सदा संपादनीयाः ॥१४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - उत्कृष्ट गुण कर्म स्वभावाच्या सभाध्यक्ष राजाने राज्याच्या रक्षण नीतीनुसार व दंडाच्या भयाने सर्व माणसांना पापापासून दूर करून सर्व शत्रूंना नष्ट करावे. विद्वानांची सर्व प्रकारे सेवा करून प्रजेमध्ये ज्ञान व सुख वाढविण्यासाठी सर्व प्राण्यांना सदैव शुभगुणयुक्त करावे. ॥ १४ ॥