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त्वम॑ग्ने॒ प्रय॑तदक्षिणं॒ नरं॒ वर्मे॑व स्यू॒तं परि॑ पासि वि॒श्वतः॑। स्वा॒दु॒क्षद्मा॒ यो व॑स॒तौ स्यो॑न॒कृज्जी॑वया॒जं यज॑ते॒ सोप॒मा दि॒वः ॥

English Transliteration

tvam agne prayatadakṣiṇaṁ naraṁ varmeva syūtam pari pāsi viśvataḥ | svādukṣadmā yo vasatau syonakṛj jīvayājaṁ yajate sopamā divaḥ ||

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Pad Path

त्वम्। अ॒ग्ने॒। प्रय॑तऽदक्षिणम्। नर॑म्। वर्म॑ऽइव। स्यू॒तम्। परि॑। पा॒सि॒। वि॒श्वतः॑। स्वा॒दु॒ऽक्षद्मा॑। यः। व॒स॒तौ। स्यो॒न॒ऽकृत्। जी॒व॒ऽया॒जम्। यज॑ते। सः। उ॒प॒ऽमा। दि॒वः ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:31» Mantra:15 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:34» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:7» Mantra:15


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (अग्ने) सबको अच्छे प्रकार जाननेवाले सभापति आप (वर्म्मेव) कवच के समान (यः) जो (स्वादुक्षद्मा) शुद्ध अन्न जल का भोक्ता (स्योनकृत्) सबको सुखकारी मनुष्य (वसतौ) निवासदेश में नाना साधनयुक्त यज्ञों से (यजते) यज्ञ करता है, उस (प्रयतदक्षिणम्) अच्छे प्रकार विद्या धर्म के उपदेश करने (जीवयाजम्) और जीवों को यज्ञ करानेवाले (स्यूतम्) अनेक साधनों से कारीगरी में चतुर (नरम्) नम्र मनुष्य को (विश्वतः) सब प्रकार से (परिपासि) पालते हो (सः) ऐसे धर्मात्मा परोपकारी विद्वान् आप (दिवः) सूर्य के प्रकाश की (उपमा) उपमा पाते हो ॥ १५ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सब के सुख करनेवाले पुरुषार्थी मनुष्य यत्न के साथ यज्ञों को करते हैं, वे जैसे सूर्य सबको प्रकाशित करके सुख देता है, वैसे सबको सुख देनेवाले होते हैं। जैसे युद्ध में प्रवृत्त हुए वीरों को शस्त्रों के घाओं से बख्तर बचाता है, वैसे ही सभापति राजा और राजजन सब धार्मिक सज्जनों को सब दुःखों से रक्षा करते रहें ॥ १५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे अग्ने राजधर्मराजमान ! त्वं वर्म्मे वयः स्वादुक्षद्मा स्योनकृन्मनुष्यो वसतौ विविधैर्यज्ञैर्यजते तं प्रयतदक्षिणं जीवयाजं स्यूतं नरं विश्वतः परिपासि, स भवान् दिव उपमा भवति ॥ १५ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) सर्वाभिरक्षकः (अग्ने) सत्यन्यायप्रकाशमान ! (प्रयतदक्षिणम्) प्रयताः प्रकृष्टतया यता विद्याधर्मोपदेशाख्या दक्षिणा येन तम् (नरम्) विनयाभियुक्तं मनुष्यम् (वर्म्मेव) यथा कवचं देहरक्षकम् (स्यूतम्) विविधसाधनैः कारुभिर्निष्पादितम् (परि) अभ्यर्थे (पासि) रक्षसि (विश्वतः) सर्वतः (स्वादुक्षद्मा) स्वादूनि क्षद्मानि जलान्यन्नानि यस्य सः। क्षद्मेत्युदकनामसु पठितम् । (निघं०१.१२) अन्ननामसु च । (निघं०२.७) इदं पदं सायणाचार्येणान्यथैव व्याख्यातं तदसङ्गतम्। (यः) मनुष्य (वसतौ) निवासस्थाने (स्योनकृत्) यः स्योनं सुखं करोति सः (जीवयाजम्) जीवान् याजयति धर्मं च सङ्गमयति तम् (यजते) यो यज्ञं करोति (सः) धर्मात्मा परोपकारी विद्वान्। अत्र सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्। (अष्टा०६.१.१३४) अनेन सोर्लोपः। (उपमा) उपमीयतेऽनयेति दृष्टान्तः (दिवः) सूर्यप्रकाशस्य ॥ १५ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। ये सर्वेषां सुखकर्त्तारः पुरुषार्थिनो मनुष्याः प्रयत्नेन यज्ञान् कुर्वन्ति, ते यथा सूर्यः सर्वान् प्रकाश्य सुखयति तथा भवन्ति यथा युद्धे प्रवर्त्तमानान् वीरान् शस्त्रघातेभ्यः कवचं रक्षति, तथैव राजादयो राजसभा जना धार्मिकान्नरान् सर्वेभ्यो दुःखेभ्यो रक्षेयुरिति ॥ १५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सूर्य सर्वांना प्रकाशित करून सुख देतो तसे सर्वांना सुखी करणारी पुरुषार्थी माणसे प्रयत्नाने यज्ञ करून सर्वांना सुख देतात. जसे युद्धात प्रवृत्त असलेल्या वीरांचे, शस्त्रांचे घाव झेलण्याचे काम ढाल करते तसे सभापती राजा व राज्यातील लोकांनी सर्व धार्मिक सज्जनांचे सर्व दुःखांपासून रक्षण करावे. ॥ १५ ॥