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त्वम॑ग्ने॒ यज्य॑वे पा॒युरन्त॑रोऽनिष॒ङ्गाय॑ चतुर॒क्ष इ॑ध्यसे। यो रा॒तह॑व्योऽवृ॒काय॒ धाय॑से की॒रेश्चि॒न्मन्त्रं॒ मन॑सा व॒नोषि॒ तम् ॥

English Transliteration

tvam agne yajyave pāyur antaro niṣaṅgāya caturakṣa idhyase | yo rātahavyo vṛkāya dhāyase kīreś cin mantram manasā vanoṣi tam ||

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Pad Path

त्वम्। अ॒ग्ने॒। यज्य॑वे। पा॒युः। अन्त॑रः। अ॒नि॒ष॒ङ्गाय॑। च॒तुः॒ऽअ॒क्षः। इ॒ध्य॒से॒। यः। रा॒तऽह॑व्यः। अ॒वृ॒काय॑। धाय॑से। की॒रेः। चि॒त्। मन्त्र॑म्। मन॑सा। व॒नोषि॑। तम् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:31» Mantra:13 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:34» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:7» Mantra:13


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि गुणयुक्त सभा स्वामी का उपदेश किया है ॥

Word-Meaning: - हे (त्वम्) सभापति ! तू (मनसा) विज्ञान से (मन्त्रम्) विचार वा वेदमन्त्र को सेवनेवाले के (चित्) सदृश (रातहव्यः) रातहव्य अर्थात् होम में लेने-देने के योग्य पदार्थों का दाता (पायुः) पालना का हेतु (अन्तरः) मध्य में रहनेवाला और (चतुरक्षः) सेना के अङ्ग अर्थात् हाथी घोड़े और रथ के आश्रय से युद्ध करनेवाले और पैदल योद्धाओं में अच्छी प्रकार चित्त देता हुआ (अनिषङ्गाय) जिस पक्षपातरहित न्याययुक्त (अवृकाय) चोरी आदि दोष के सर्वथा त्याग और (धायसे) उत्तम गुणों के धारण तथा (यज्यवे) यज्ञ वा शिल्प विद्या सिद्ध करनेवाले मनुष्य के लिये (इध्यसे) तेजस्वी होकर अपना प्रताप दिखाता है, या कि जिसको (वनोषि) सेवन करता है, उस (कीरेः) प्रशंसनीय वचन कहनेवाले विद्वान् से विनय को प्राप्त होके प्रजा का पालन किया कर ॥ १३ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्यार्थी लोग अध्यापक अर्थात् पढ़ानेवालों से उत्तम विचार के साथ उत्तम-उत्तम विद्यार्थियों का सेवन करते हैं, वैसे तू भी धार्मिक विद्वानों के उपदेश के अनुकूल होके राजधर्म का सेवन करता रह ॥ १३ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनरग्निगुणः सभापतिरुपदिश्यते ॥

Anvay:

हे सभापते ! मनसा चिदिव रातहव्योऽन्तरश्चतुरक्षस्त्वमनिषङ्गायावृकाय धायसे यज्यवे यज्ञकर्त्रे इध्यसे दीप्यसे। किञ्च यं वनोषि सम्भजसि तस्य कीरेः सकाशाद् विनयमधिगम्य प्रजाः पालयेः ॥ १३ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) सभाधिष्ठाता (अग्ने) योऽग्निरिव देदीप्यमानः (यज्यवे) होमादिशिल्पविद्यासाधकाय विदुषे। अत्र यजिमनिशुन्धिदसि० (उणा०३.२०) अनेन यजधातोर्युच् प्रत्ययः। (पायुः) पालनहेतुः । ‘पा रक्षणे’ इत्यस्माद् उण्। (अन्तरः) मध्यस्थः (अनिषङ्गाय) अविद्यमानो नितरां सङ्गः पक्षपातो यस्य तस्मै (चतुरक्षः) यः खलु चतस्रः सेना अश्नुते व्याप्नोति स चतुरक्षः। अक्षा अश्नुवत एनान् इति वा अभ्यश्नुत एभिरिति वा । (निरु०९.७) (इध्यसे) प्रदीप्यसे (यः) विद्वान् शुभलक्षणः (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः (अवृकाय) अचोराय। वृक इति चोरनामसु पठितम् । (निघं०३.२४) अत्र सृवृभूशुषि० (उणा०३.४०) अनेन वृञ्धातोः कक् प्रत्ययः। (धायसे) यो दधाति सर्वाणि कर्माणि स धायास्तस्मै (कीरेः) किरति विविधतया वाचा प्रेरयतीति कीरिः स्तोता तस्मात्। कीरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) अत्र ‘कॄ विक्षेप’ इत्यस्मात् कॄगॄशॄपॄकुटि० (उणा०४.१४८) अनेन इप्रत्ययः, स च कित् पूर्वस्य च दीर्घो बाहुलकात्। (चित्) इव (मन्त्रम्) उच्चार्य्यमाणं वेदावयवं विचारं वा (मनसा) अन्तःकरणेन (वनोषि) याचसे सम्भजसि वा (तम्) अग्निम् ॥ १३ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथाध्यापकाद्विद्यार्थिनो मनसा विद्या सेवन्ते, तथैव त्वमाप्तोपदेशानुसारेण राजधर्मं सेवस्व ॥ १३ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्यार्थी अध्यापकाकडून उत्तम विचार ग्रहण करतात तसे हे राजा तूही धार्मिक विद्वानांच्या उपदेशानुसार राजधर्माचे ग्रहण कर. ॥ १३ ॥