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तत्तु प्रय॑: प्र॒त्नथा॑ ते शुशुक्व॒नं यस्मि॑न्य॒ज्ञे वार॒मकृ॑ण्वत॒ क्षय॑मृ॒तस्य॒ वार॑सि॒ क्षय॑म्। वि तद्वो॑चे॒रध॑ द्वि॒तान्तः प॑श्यन्ति र॒श्मिभि॑:। स घा॑ विदे॒ अन्विन्द्रो॑ ग॒वेष॑णो बन्धु॒क्षिद्भ्यो॑ ग॒वेष॑णः ॥

English Transliteration

tat tu prayaḥ pratnathā te śuśukvanaṁ yasmin yajñe vāram akṛṇvata kṣayam ṛtasya vār asi kṣayam | vi tad vocer adha dvitāntaḥ paśyanti raśmibhiḥ | sa ghā vide anv indro gaveṣaṇo bandhukṣidbhyo gaveṣaṇaḥ ||

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Pad Path

तत्। तु। प्रयः॑। प्र॒त्नऽथा॑। ते॒। शु॒शु॒क्व॒नम्। यस्मि॑न्। य॒ज्ञे। वार॑म्। अकृ॑ण्वत। क्षय॑म्। ऋ॒तस्य॑। वाः। अ॒सि॒। क्षय॑म्। वि। तत्। वो॒चेः॒। अध॑। द्वि॒ता। अ॒न्तरिति॑। प॒श्य॒न्ति॒। र॒श्मिऽभिः॑। सः। घ॒। वि॒दे॒। अनु॑। इन्द्रः॑। गो॒ऽएष॑णः। ब॒न्धु॒क्षित्ऽभ्यः॑। गो॒ऽएष॑णः ॥ १.१३२.३

Rigveda » Mandal:1» Sukta:132» Mantra:3 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:21» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:3


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्य क्या करके कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे विद्वान् ! (गवेषणः) जो वाणी की इच्छा करता है उस (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् के समान (ते) आपका (प्रत्नथा) प्राचीन (यस्मिन्) जिस (यज्ञे) व्यवहार में (ऋतस्य) सत्य का (शुशुक्वनम्) अतिप्रकाशित (क्षयम्) निवास का (वारम्) स्वीकार करने को (वाः) जल और (क्षयम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थ के समान जो (प्रयः) प्रीति करनेवाले वचन को (अकृण्वत) उच्चारण करें उनके (तत्) उस पूर्वोक्त वचन को (तु) तो आप प्राप्त (असि) हैं (अध) इसके अनन्तर (द्विता) दो का होना जैसे हो वैसे (रश्मिभिः) किरणों के साथ (अन्तः) भीतर जिसको (पश्यन्ति) देखते हैं (तत्) उसको तूँ (वि, वोचेः) अच्छे कह और (सः) वह (बन्धुक्षिद्भ्यः) बन्धुओं को निवास कराते हुए पुरुषों के लिये (गवेषणः) किरणों को इष्ट सूर्य के समान ऐश्वर्यवान् मैं (अनु, विदे) अनुकूलता से जानता हूँ (घ) उसीको आप भी जानो ॥ ३ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमलाङ्कार है। जो सत्य गुणों में प्रीति करते हैं, वे विद्वान् होते और जो विद्वान् हों, वे सूर्य के प्रकाश से सब हाथ में आमले के समान पदार्थों को देख सकते हैं ॥ ३ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ।

Anvay:

हे विद्वान् गवेषण इन्द्र इव ते तव प्रत्नथा यस्मिन् यज्ञ ऋतस्य शुशुक्वनं क्षयं वारं वाः क्षयमिव ये प्रयोऽकृण्वत तेषां तत्तु त्वं प्राप्तोऽसि। अधाथ द्विता रश्मिभिरन्तर्यत् पश्यन्ति तत्त्वं विवोचेः स बन्धुक्षिद्भ्यो गवेषण इन्द्रोऽहं यदनुविदे घ तदेव त्वं जानीहि ॥ ३ ॥

Word-Meaning: - (तत्) पूर्वोक्तम् (तु) (प्रयः) प्रीतिकारकं वचः (प्रत्नथा) प्राचीनम् (ते) तव (शुशुक्वनम्) अतिशयेन प्रदीप्तम् (यस्मिन्) (यज्ञे) व्यवहारे (वारम्) वर्त्तुम् (अकृण्वत) कुर्वन्तु (क्षयम्) निवासम् (ऋतस्य) सत्यस्य (वाः) जलमिव (असि) (क्षयम्) प्राप्तव्यम् (वि) (तत्) (वोचेः) ब्रूयाः (अध) अथ (द्विता) द्वयोर्भावः (अन्तः) आभ्यन्तरे (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (रश्मिभिः) किरणैः (सः) (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (विदे) वेद्मि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (अनु) (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (गवेषणः) यो गां वाणीमिच्छति सः (बन्धुक्षिद्भ्यः) बन्धून् निवासयद्भ्यः (गवेषणः) गवां किरणानामिष्टः सूर्य इव ॥ ३ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सत्यगुणेषु प्रीतिं कुर्वन्ति ते विद्वांसो जायन्ते ये विद्वांसः स्युस्ते सूर्यप्रकाशेन सर्वान् पदार्थान् हस्तामलकवद्द्रष्टुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सत्यावर प्रेम करतात ते विद्वान असतात व जे विद्वान असतात ते सूर्याच्या प्रकाशात हस्तमलकावत (हातातील आवळ्याप्रमाणे) पदार्थांना पाहू शकतात. (ते पदार्थांना सूक्ष्म पद्धतीने पाहू शकतात. ) ॥ ३ ॥