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अ॒हं सो अ॑स्मि॒ यः पु॒रा सु॒ते वदा॑मि॒ कानि॑ चित्। तं मा॑ व्यन्त्या॒ध्यो॒३॒॑ वृको॒ न तृ॒ष्णजं॑ मृ॒गं वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

English Transliteration

ahaṁ so asmi yaḥ purā sute vadāmi kāni cit | tam mā vyanty ādhyo vṛko na tṛṣṇajam mṛgaṁ vittam me asya rodasī ||

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Pad Path

अ॒हम्। सः। अ॒स्मि॒। यः। पु॒रा। सु॒ते। वदा॑मि। कानि॑। चि॒त्। तम्। मा॒। व्य॒न्ति॒। आ॒ऽध्यः॑। वृकः॑। न। तृ॒ष्णऽज॑म्। मृ॒गम्। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.७

Rigveda » Mandal:1» Sukta:105» Mantra:7 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:21» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:7


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब विद्वान् जन इनके उत्तर ऐसे देवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अहम्) संसार का उत्पन्न करनेवाला (सुते) उत्पन्न हुए इस जगत् में (कानि) (चित्) किन्हीं व्यवहारों को (पुरा) सृष्टि के पूर्व वा विद्वान् मैं उत्पन्न हुए संसार में किन्हीं व्यवहारों को विद्या की उत्पत्ति से पहिले (वदामि) कहता हूँ (सः) वह मैं सेवन करने योग्य (अस्मि) हूँ (तम्) उस (मा) मुझको (आध्यः) अच्छी प्रकार चिन्तन करनेवाले आप लोग जैसे (वृकः) चोर वा व्याघ्र (तृष्णजम्) पियासे (मृगम्) हरिण को (न) वैसे (व्यन्ति) चाहो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ ७ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार है। सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे मैंने सृष्टि को रचके वेद द्वारा जैसे-जैसे उपदेश किये हैं उनको वैसे ही ग्रहण करो और उपासना करने योग्य मुझको छोड़के अन्य किसीकी उपासना कभी मत करो। जैसे कोई जीव मृग या रसिक चोर वा बघेरा हरिण को प्राप्त होने चाहता है वैसे ही सब दोषों को निर्मूल छोड़कर मेरी चाहना करो और ऐसे विद्वान् को भी चाहो ॥ ७ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विद्वांस एतेषामुत्तराण्येवं दद्युरित्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे मनुष्या योऽहं सृष्टिकर्त्ता विद्वान् वा सुतेऽस्मिञ्जगति कानिचित्पुरा वदामि सोऽहमस्मि सेवनीयः। तं माध्यो भवन्तो वृकस्तृष्णजं मृगं न व्यन्ति कामयन्तामन्यत्पूर्ववत् ॥ ७ ॥

Word-Meaning: - (अहम्) अहमीश्वरो विद्वान् वा (सः) (अस्मि) (यः) (पुरा) सृष्टेर्विद्योत्पत्तेः प्राग्वा (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन्कार्य्ये जगति (वदामि) उपदिशामि (कानि) (चित्) अपि (तम्) (मा) माम् (व्यन्ति) कामयन्ताम्। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीयङभावे यणादेशः लेट्प्रयोगोऽयम्। (आध्यः) समन्ताद्ध्यायन्ति चिन्तयन्ति ये ते (वृकः) स्तेनो व्याधः। वृक इति स्तेनना०। निघं० ३। २४। (न) इव (तृष्णजम्) तृष्णा जायते यस्मात्तम्। अत्र जन धातोर्डः। ङ्यापोः संज्ञाछन्दसोर्बहुलमिति ह्रस्वत्वम्। (मृगम्) (वित्तं मे०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। सर्वान्मनुष्यान्प्रतीश्वर उपदिशति हे मानवा यूयं यथा मया सृष्टिं रचयित्वा वेदद्वारा यादृशा उपदेशाः कृताः सन्ति तान् तथैव स्वीकुरुत। उपास्यं मां विहायाऽन्यं कदाचिन्नोपासीध्वम्। यथा कश्चिन्मृगयायां प्रवर्त्तमानश्चोरो व्याधो वा मृगं प्राप्तुं कामयते तथैव सर्वान् दोषान्हित्वा मां कामयध्वम्। एवं विद्वांसमपि ॥ ७ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. सर्व माणसांना ईश्वर उपदेश करतो की हे माणसांनो! मी जशी सृष्टी निर्माण केलेली आहे, वेदाद्वारे जसा उपदेश केलेला आहे तसा तुम्ही ग्रहण करा. मला सोडून इतर कुणाची उपासना कधीही करू नका. जसा एखादा चोर अथवा शिकारी हरणाला प्राप्त करू इच्छितो तसे सर्व दोषांना निर्मूल करून माझी इच्छा धरा व विद्वानांचीही इच्छा धरा. ॥ ७ ॥