Word-Meaning: - (येषाम्) जिन [तुम्हारे] (प्रयाजाः) उत्तम पूजनीय कर्म (उत वा) और (अनुयाजाः) अनुकूल पूजनीय कर्म और (हुतभागाः) देने-लेने के विभाग (च) और (अहुतादः) यज्ञ वा दान से बचे पदार्थों के आहार (देवाः) विजय करनेहारे [वा प्रकाशवाले] हैं और (येषाम् वः) जिन तुम्हारे (पञ्च) विस्तीर्ण [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम दानक्रियाएँ [वा प्रधान दिशाएँ] (विभक्ताः) अनेक प्रकार बटी हुयी हैं (तान् वः) उन तुमको (अस्मै) इस [पुरुष] के हित के लिये [अपने लिये] (सत्रसदः) सभासद् (कृणोमि) बनाता हूँ ॥४॥
Connotation: - जो धर्मात्मा विद्वान् पुरुष स्वार्थ छोड़ कर दान करते हों और सब संसार के हित में दत्तचित्त हों, राजा उन महात्माओं को चुन कर अपनी राजसभा का सभासद् बनावे ॥४॥ यज्ञशेष के भोजन के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण महाराज ने कहा है। भगवद्गीता अ० ४ श्लोक ३१ ॥ यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥१॥ यह [दान वा देवपूजा] से बचे अमृत का भोजन करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करनेवाले का यह लोक नहीं है, हे कौरवों में श्रेष्ठ ! फिर उसका परलोक कहाँ से हो ॥