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देवता: इन्द्रः ऋषि: मेध्यातिथिः छन्द: बृहती स्वर: सूक्त-५७

दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे। नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हांश्च॑र॒स्योज॑सा ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दाना । मृग: । न । वारण: । पुरुऽत्रा । चरथम् । दधे ॥ नकि: । त्वा । नि । यमत् । आ । सुते । गम: । महान् । चरसि । ओजसा ॥५७.१२॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:57» पर्यायः:0» मन्त्र:12


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

११-१३ सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (न) जैसे (मृगः) जंगली (वारणः) हाथी (दाना) मद के कारण (पुरुत्रा) बहुत प्रकार से (चरथम्) झपट (दधे) लगाता है। [वैसे ही] (नकि) कोई नहीं (त्वा) तुझे (नि यमत्) रोक सकता, (सुते) तत्त्वरस को (आ गमः) तू प्राप्त हो, (महान्) महान् होकर तू (ओजसा) बल के साथ (चरसि) विचरता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जैसे वन का मदमत्त हाथी सब ओर बे-रोक घूमकर उपद्रव मचाता है, वैसे ही नीतिज्ञ सेनापति तत्त्व विचारकर शत्रुओं को शीघ्र दबावे ॥१२॥
टिप्पणी: ११-१३ एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥