पदार्थान्वयभाषाः - (आबाधः) शत्रुओं के सन्मुख बाधा करनेवाला (ऋग्मियः) ऋचाओं से सत्कार योग्य (वह्निः) सब प्रजा से बलि का ग्रहण करनेवाला वह विद्वान् (इषः, पृक्षश्च) जब क्रूर प्रजा से अन्न वा अन्य देय द्रव्य को (निग्रभे) नहीं पाता है, तब (उपविदा) स्व स्वामी के प्रति वेदन करके (येषाम्) जिनका देयभाग नहीं पाया, उनके (वसू, विन्दते) रत्नों को हर लेता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि उपर्युक्त कर्मयोगी को जब प्रजाजन उसका देय आप नहीं देते, तब वह बलात् उनके धनों को हर लेता है अर्थात् जब वह यह देखता है कि प्रजाओं में यथोचित व्यवस्था नहीं, तब वह अपनी दण्डरूप शक्ति से दमनीय लोगों को दमन करके समता का शासन फैलाता है, जिससे प्रजाओं को अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं, अतएव प्रजाओं को शासक को बलि देना अति आवश्यक है, जिससे किसी प्रकार का विरोध उत्पन्न न हो ॥३॥