पदार्थान्वयभाषाः - (संयतः) सम्यक् रक्षित (नः, यज्ञासः) हमारे यज्ञ (अङ्गिरस्तमम्) प्राणसदृश उस शूर के (अच्छ, यन्तु) अभिमुख प्राप्त हों (यः, यशस्तमः) जो अत्यन्त यशस्वी (विक्षु) प्रजाओं में (आहोता, अस्ति) यज्ञनिष्पादक है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - भाव यह है कि जिस प्रकार प्राण शरीर के सब अङ्गों का संरक्षक होता है, या यों कहो कि सब अङ्गों में सारभूत प्राण ही कहा जाता है, इसी प्रकार यज्ञ की रक्षा करनेवाले वीरपुरुष यज्ञ के प्राणसदृश हैं, अतएव प्रजाजनों को उचित है कि जिस प्रकार योगीजन प्राणविद्या द्वारा प्राणों को वशीभूत करके अभिनिवेशादि पाँच क्लेशों से रहित हो जाते हैं, इसी प्रकार प्राणरूप वीरों की विद्या द्वारा अविद्यादि पाँच क्लेशों से रहित होना प्रजाजनों का मुख्योद्देश्य होना चाहिये, ताकि सुख का अनुभव करते हुए मनुष्यजीवन को उच्च बनावें ॥१०॥