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अच्छा॑ नो॒ अङ्गि॑रस्तमं य॒ज्ञासो॑ यन्तु सं॒यत॑: । होता॒ यो अस्ति॑ वि॒क्ष्वा य॒शस्त॑मः ॥

English Transliteration

acchā no aṅgirastamaṁ yajñāso yantu saṁyataḥ | hotā yo asti vikṣv ā yaśastamaḥ ||

Pad Path

अच्छ॑ । नः॒ । अङ्गि॑रःऽतमम् । य॒ज्ञासः॑ । य॒न्तु॒ । स॒म्ऽयतः॑ । होता॑ । यः । अस्ति॑ । वि॒क्षु । आ । य॒शःऽत॑मः ॥ ८.२३.१०

Rigveda » Mandal:8» Sukta:23» Mantra:10 | Ashtak:6» Adhyay:2» Varga:10» Mantra:5 | Mandal:8» Anuvak:4» Mantra:10


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SHIV SHANKAR SHARMA

पुनः वही विषय आ रहा है।

Word-Meaning: - (नः) हम लोगों के (यज्ञासः) शुभ कर्म (संयतः) विधिपूर्वक नियमित होकर उसके निकट (यन्तु) पहुँचें, जो (अङ्गिरस्तमम्) प्राणिमात्र के अङ्गों का रसस्वरूप है और (यः) जो अग्निवाच्य ईश्वर (विक्षु) प्रजाओं में (होता) सब कुछ देनेवाले और (आ) सर्व प्रकार से (यशस्तमः+अस्ति) अत्यन्त यशस्वी है ॥१०॥
Connotation: - हमारे सकल शुभकर्म उसके उद्देश्य से ही हों ॥१०॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (संयतः) सम्यक् रक्षित (नः, यज्ञासः) हमारे यज्ञ (अङ्गिरस्तमम्) प्राणसदृश उस शूर के (अच्छ, यन्तु) अभिमुख प्राप्त हों (यः, यशस्तमः) जो अत्यन्त यशस्वी (विक्षु) प्रजाओं में (आहोता, अस्ति) यज्ञनिष्पादक है ॥१०॥
Connotation: - भाव यह है कि जिस प्रकार प्राण शरीर के सब अङ्गों का संरक्षक होता है, या यों कहो कि सब अङ्गों में सारभूत प्राण ही कहा जाता है, इसी प्रकार यज्ञ की रक्षा करनेवाले वीरपुरुष यज्ञ के प्राणसदृश हैं, अतएव प्रजाजनों को उचित है कि जिस प्रकार योगीजन प्राणविद्या द्वारा प्राणों को वशीभूत करके अभिनिवेशादि पाँच क्लेशों से रहित हो जाते हैं, इसी प्रकार प्राणरूप वीरों की विद्या द्वारा अविद्यादि पाँच क्लेशों से रहित होना प्रजाजनों का मुख्योद्देश्य होना चाहिये, ताकि सुख का अनुभव करते हुए मनुष्यजीवन को उच्च बनावें ॥१०॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

पुनस्तदनुवर्तते।

Word-Meaning: - नः=अस्माकम्। यज्ञासः=यज्ञाः। संयतः=संयताः=नियमिताः सन्तः अङ्गिरस्तमम्=अतिशयेन सर्वेषां जीवानामङ्गरसम् ईशम्। अच्छ=प्रति। यन्तु=गच्छन्तु। योऽग्निः। विक्षु=प्रजासु। होता। आ=सर्वतः। यशस्तमोऽस्ति ॥१०॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (संयतः) सुरक्षिताः (नः, यज्ञासः) अस्माकं यज्ञाः (अङ्गिरस्तमम्) प्राणसदृशतमं ते शूरम् (अच्छ, यन्तु) अभि गच्छन्तु (यः, यशस्तमः) यः अतिशयेन यशस्वी (विक्षु) प्रजासु (आहोता, अस्ति) यज्ञनिष्पादकोऽस्ति ॥१०॥