योनि॑ष्ट इन्द्र॒ सद॑ने अकारि॒ तमा नृभिः॑ पुरुहूत॒ प्र या॑हि। असो॒ यथा॑ नोऽवि॒ता वृ॒धे च॒ ददो॒ वसू॑नि म॒मद॑श्च॒ सोमैः॑ ॥१॥
yoniṣ ṭa indra sadane akāri tam ā nṛbhiḥ puruhūta pra yāhi | aso yathā no vitā vṛdhe ca dado vasūni mamadaś ca somaiḥ ||
योनिः॑। ते॒। इ॒न्द्र॒। सद॑ने। अ॒का॒रि॒। तम्। आ। नृऽभिः॑। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। प्र। या॒हि॒। असः॑। यथा॑। नः॒। अ॒वि॒ता। वृ॒धे। च॒। ददः॑। वसू॑नि। म॒मदः॑। च॒। सोमैः॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले चौबीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे पुरुहूत इन्द्र राजंस्ते सदने यो योनिस्त्वयाऽकारि तं नृभिस्सह प्र याहि यथा नोऽविताऽसो नो वृधे च वसून्याददः सोमैश्च ममदस्तथा सर्वेषां सुखाय भव ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, राजा, स्त्री, पुरुष व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.