पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस परमात्मा में (विश्वानि, भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन (तस्थुः) स्थिर हैं (तिस्रो द्यावः) जिसमें भूर्भुवः स्वः ये तीनों लोक स्थिर हैं (त्रेधा, सस्रुः, आपः) “आप्यते प्राप्यत इति अपः कर्म”। अप इति कर्मनामसु पठितम् ॥ निघण्टौ २। १ ॥ “तस्यायमित्यापः” जिसमें तीन प्रकार से कर्म गति करते हैं, अर्थात् संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण, (त्रयः, कोशासः) जिसमें तीन कोश हैं, वे कोश कैसे हैं (उपसेचनासः) उपसिञ्चन करनेवाले हैं, वह परमात्मा (मध्वः, श्चोतन्ति, अभितः, विरप्शम्) सब प्रकार से आनन्द की वृष्टि करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा में अन्नमय, प्राणमय और मनोमय इन तीनों कोशोंवाले अनन्त जीव निवास करते हैं और निखिल ब्रह्माण्ड उसी में स्थिर हैं, उसी परमात्मा की सत्ता से जीव संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध तीन प्रकार के कर्मों की वृष्टि करता है। वह परमात्मा मेघ के समान आनन्दों की वृष्टि करता है। इस मन्त्र में रूपकालङ्कार से परमात्मा को मेघवत् वृष्टिकर्त्ता वर्णन किया गया है ॥४॥