य ईं॒ राजा॑नावृतु॒था वि॒दध॒द्रज॑सो मि॒त्रो वरु॑ण॒श्चिके॑तत्। ग॒म्भी॒राय॒ रक्ष॑से हे॒तिम॑स्य॒ द्रोघा॑य चि॒द्वच॑स॒ आन॑वाय ॥९॥
ya īṁ rājānāv ṛtuthā vidadhad rajaso mitro varuṇaś ciketat | gambhīrāya rakṣase hetim asya droghāya cid vacasa ānavāya ||
यः। ई॒म्। राजा॑नौ। ऋ॒तु॒ऽथा। वि॒ऽदध॑त्। रज॑सः। मि॒त्रः। वरु॑णः। चिके॑तत्। ग॒म्भी॒राय॑। रक्ष॑से। हे॒तिम्। अ॒स्य॒। द्रोघा॑य। चि॒त्। वच॑से। आन॑वाय ॥९॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्स किं कुर्य्यादित्याह ॥
हे विद्वांसो ! यो मित्रो वरुणो गम्भीरायाऽऽनवाय वचसे चिदपि द्रोघाय रक्षसेऽस्योपरि हेतिं रजस ऋतुथा राजानौ विदधत्सन्नीं चिकेतत्तं यूयमुत्साहयत ॥९॥