पिबा॒ सोम॑म॒भि यमु॑ग्र॒ तर्द॑ ऊ॒र्वं गव्यं॒ महि॑ गृणा॒न इ॑न्द्र। वि यो धृ॑ष्णो॒ वधि॑षो वज्रहस्त॒ विश्वा॑ वृ॒त्रम॑मि॒त्रिया॒ शवो॑भिः ॥१॥
pibā somam abhi yam ugra tarda ūrvaṁ gavyam mahi gṛṇāna indra | vi yo dhṛṣṇo vadhiṣo vajrahasta viśvā vṛtram amitriyā śavobhiḥ ||
पिब॑। सोम॑म्। अ॒भि। यम्। उ॒ग्र॒। तर्दः॑। ऊ॒र्वम्। गव्य॑म्। महि॑। गृ॒णा॒नः। इ॒न्द्र॒। वि। यः। धृ॒ष्णो॒ इति॑। वधि॑षः। व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒। विश्वा॑। वृ॒त्रम्। अ॒मि॒त्रिया॑। शवः॑ऽभिः ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चतुर्थ अष्टक में छठे अध्याय और छठे मण्डल में पन्द्रह ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्म्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे वज्रहस्त धृष्णो इन्द्र ! यः शवोभिर्वृत्रं सूर्य्य इव विश्वाऽमित्रिया त्वं वि वधिषः। हे उग्र ! महि गव्यं गृणानो यमूर्वमभि तर्दस्तत्सम्बन्धे स त्वं सोमं पिबा ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, विद्वान, राजा, मंत्री व प्रजेच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.