अ॒पा॒रो वो॑ महि॒मा वृ॑द्धशवसस्त्वे॒षं शवो॑ऽवत्वेव॒याम॑रुत्। स्थाता॑रो॒ हि प्रसि॑तौ सं॒दृशि॒ स्थन॒ ते न॑ उरुष्यता नि॒दः शु॑शु॒क्वांसो॒ नाग्नयः॑ ॥६॥
apāro vo mahimā vṛddhaśavasas tveṣaṁ śavo vatv evayāmarut | sthātāro hi prasitau saṁdṛśi sthana te na uruṣyatā nidaḥ śuśukvāṁso nāgnayaḥ ||
अ॒पा॒रः। वः॒। म॒हि॒मा। वृ॒द्ध॒ऽश॒व॒सः॒। त्वे॒षम्। शवः॑। अ॒व॒तु॒। ए॒व॒याम॑रुत्। स्थाता॑रः। हि। प्रऽसि॑तौ। स॒म्ऽदृशिः॑। स्थन॑। ते। नः॒। उ॒रु॒ष्य॒त॒। नि॒दः। शु॒शु॒क्वांसः॑। न। अ॒ग्नयः॑ ॥६॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब विद्वानों को किनका निवारण करके किनका सत्कार करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्भिः कान्निवार्य के सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥
हे वृद्धशवसः स्थातारोऽग्नयो न वो योऽपारो महिमैवयामरुत्त्वेषं शवश्चावतु हि प्रसितौ निदः शुशुक्वांसः सन्तु ते यूयं संदृशि स्थन नोऽस्मानुरुष्यता ॥६॥