अ॒ग्निर्जु॑षत नो॒ गिरो॒ होता॒ यो मानु॑षे॒ष्वा। स य॑क्ष॒द्दैव्यं॒ जन॑म् ॥३॥
agnir juṣata no giro hotā yo mānuṣeṣv ā | sa yakṣad daivyaṁ janam ||
अ॒ग्निः। जु॒ष॒त॒। नः॒। गिरः॑। होता॑। यः। मानु॑षेषु। आ। सः। य॒क्ष॒त्। दैव्य॑म्। जन॑म् ॥३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे विद्वन् ! यो होता यथाग्निर्नो गिरो जुषत यथा स मानुषेषु दैव्यं जनमा यक्षत्तथा त्वमनुतिष्ठ ॥३॥