ए॒वा त्वामि॑न्द्र वज्रि॒न्नत्र॒ विश्वे॑ दे॒वासः॑ सु॒हवा॑स॒ ऊमाः॑। म॒हामु॒भे रोद॑सी वृ॒द्धमृ॒ष्वं निरेक॒मिद्वृ॑णते वृत्र॒हत्ये॑ ॥१॥
evā tvām indra vajrinn atra viśve devāsaḥ suhavāsa ūmāḥ | mahām ubhe rodasī vṛddham ṛṣvaṁ nir ekam id vṛṇate vṛtrahatye ||
ए॒व। त्वाम्। इ॒न्द्र॒। व॒ज्रि॒न्। अत्र॑। विश्वे॑। दे॒वासः॑। सु॒ऽहवा॑सः। ऊमाः॑। म॒हाम्। उ॒भे इति॑। रोद॑सी॒ इति॑। वृ॒द्धम्। ऋ॒ष्वम्। निः। एक॑म्। इत्। वृ॒ण॒ते॒। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तृतीयाष्टक में छठे अध्याय का और ग्यारह ऋचावाले उन्नीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों का उपदेश करते हैं ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेन्द्रपदवाच्यराजगुणानाह ॥
हे वज्रिन्निन्द्राऽत्र ये ऊमाः सुहवासो विश्वे देवासो महां वृद्धमृष्वमेकं त्वामेवा वृत्रहत्य उभे रोदसी सूर्य्यमिवेन्निर्वृणते तानेव त्वं सेवस्व ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, मेघ, सेना, सेनापती, राजा, प्रजा व विद्वानांचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.