अ॒ग्निर्होता॑ नो अध्व॒रे वा॒जी सन्परि॑ णीयते। दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञियः॑ ॥१॥
agnir hotā no adhvare vājī san pari ṇīyate | devo deveṣu yajñiyaḥ ||
अ॒ग्निः। होता॑। नः॒। अ॒ध्व॒रे। वा॒जी। सन्। परि॑। नी॒य॒ते॒। दे॒वः। दे॒वेषु॑। य॒ज्ञियः॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब दश ऋचावाले पन्द्रहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निविषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निविषयमाह ॥
हे मनुष्या ! यो नोऽध्वरेऽग्निरिव होता देवेषु देवो यज्ञियो वाजी सन् परिणीयते स युष्माभिरपि प्रापणीयः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, राजा, अध्यापक, शिकणाऱ्याच्या कर्माचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.