वि॒श्व॒जिते॑ धन॒जिते॑ स्व॒र्जिते॑ सत्रा॒जिते॑ नृ॒जित॑ उर्वरा॒जिते॑। अ॒श्व॒जिते॑ गो॒जिते॑ अ॒ब्जिते॑ भ॒रेन्द्रा॑य॒ सोमं॑ यज॒ताय॑ हर्य॒तम्॥
viśvajite dhanajite svarjite satrājite nṛjita urvarājite | aśvajite gojite abjite bharendrāya somaṁ yajatāya haryatam ||
वि॒श्व॒ऽजिते॑। ध॒न॒ऽजिते॑। स्वः॒ऽजिते॑। स॒त्रा॒ऽजिते॑। नृ॒ऽजिते॑। उ॒र्व॒रा॒ऽजिते॑। अ॒श्व॒ऽजिते॑। गो॒ऽजिते॑। अ॒प्ऽजिते॑। भ॒र॒। इन्द्रा॑य। सोम॑म्। य॒ज॒ताय॑। ह॒र्य॒तम्॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः चावाले इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के गुणों को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्गुणानाह।
हे प्रजाजन त्वं विश्वजिते सत्राजिते स्वर्जिते नृजितेऽश्वजिते गोजित उर्वराजिते धनजितेऽब्जिते यजतायेन्द्राय हर्यतं सोमं भर ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.