अध्व॑र्यवो॒ यः श॒तं शम्ब॑रस्य॒ पुरो॑ बि॒भेदाश्म॑नेव पू॒र्वीः। यो व॒र्चिनः॑ श॒तमिन्द्रः॑ स॒हस्र॑म॒पाव॑प॒द्भर॑ता॒ सोम॑मस्मै॥
adhvaryavo yaḥ śataṁ śambarasya puro bibhedāśmaneva pūrvīḥ | yo varcinaḥ śatam indraḥ sahasram apāvapad bharatā somam asmai ||
अध्व॑र्यवः। यः। श॒तम्। शम्ब॑रस्य। पुरः॑। बि॒भेद॑। अश्म॑नाऽइव। पू॒र्वीः। यः। व॒र्चिनः॑। श॒तम्। इन्द्रः॑। स॒हस्र॑म्। अ॒पऽअव॑पत्। भर॑त॒। सोम॑म्। अ॒स्मै॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे अध्वर्यवो वो यूयं यः शम्बरस्य शतं पुरोघटमश्मनेव बिभेद य इन्द्रो वर्चिनः शतं सहस्रं च पूर्वीरपावपत्तद्वदस्मै सोमं भरत ॥६॥